Wednesday, June 29, 2022

शहर के शोर में गुम है खामोशी कहीं..!!! /Silence is missing in the noise of the city somewhere..!!!

 
                             (विचार)

गांव की परिवेश से निकलते वक्त सुनहरे सपनों के ख्याल तो सभी के मन में होते हैं। लगता है जैसे बनते, सुलझते सड़कों के रास्तें और इमारतों में दौड़ती आकाश की ओर बढ़ती कंकरीट के ग्रॉफ के समान जिंदगी के शेयर मार्केट का उच्छाल भी शहर पहुचने के बाद तेजी से बढ़ेगा। इसी मोह को कहीं न कहीं ग्रामीण बोल चाल में शहरी हवा लगने की संज्ञा से संबोधित किया जाता है। गांव के खूले-खूले आंगन के इर्दगिर्द पिरोये घरों का खुलापन छोड़, शहर के किसी तंग गलियों में छोटे-छोटे कमरों में बड़े-बड़े परिवार को गुजारा करना पड़ता है। लोगों में धारणाएँ है की बदलाव की प्रारंभिक सीढ़ी यहीं से होकर गुजरती है। दस बाई दस से भी छोटे कमरों की दीवारों में दो हजार स्क्वेयर फीट से बड़े घर या बंगलों के तस्वीर मनोरथ स्वरूप चिपका लिए जाते हैं। बेचारा भोला ग्रामीण, उसे दौड़ती भागती शहरी जिंदगी का मर्म शायद इत्तला भी नहीं होता है। पेट और पेट की भूख तो सबको होती है। इनकी पूर्ति के लिए यह भी आवश्यक है की अर्थार्जन सुनिश्चित हो। कभी काम के लिए भागते पैर थकान से पथारा जाते हैं। मगर इच्छाओं का भँवर पीछे थोड़ी होने देगा। काम यदि आसानी से मिले तो, दाम का जेब के एक से दूसरे किनारे तक फिसलना लाजमी है। काम ठीक मिलता, मेहनताने से घर के दो-चार दिन के भरणपोषण का जद्दोजहद से राहत तो निश्चित है। लेकिन ख्वाहिशों के पिटारे में अब भी हाथ सिर्फ अगली तारीख रशीद कर जीह्वा की स्वाद को शांत कर लेते हैं। कभी दौड़ती-भागती जिन्दगी की चकाचौंध आँखों को इतनी धुँधली कर देती है कि क्या सही,क्या गलत सब कुछ मटियामेट करने को आमादा हो जाती है। संभवतः तभी अस्मिता चौखट लांघकर रोड़ के किनारे अच्छे कस्टमर को इशारा देती नज़र आती है।     
              कभी वेदनाओं के सीमांत होकर शोर में आँख छलक उठते हैं। मगर ये शोर इतनी बेतरतीब है की कानों को बहराकर देती है। मानों संवेदनाओं की कोषागार में आपूर्ति शून्यग्राही हो चुकी हो। इन कंकरीटों के जाल में मानवतावादी विचारधारा तो वैसे भी चार दीवारों में कैद होकर रह गए है। जो संवेदनशील मामलों पर भी असंवेदनशीलता प्रदर्शित करता है। बहरहाल, हम बात कर रहे हैं, ग्राम जीवन से निकले भोले ग्रामीण की जो शहर के दलदली ठहराव में आकर, अपना भोलापन खो देता है। काम निकलाने के परम्परा और बढ़ती महंगाई के लिबाज में माहिर पैतरेबाज से कम की योग्यता नहीं रखता है। लेकिन शनैः-शनैः वह शहर की भीड़ का हिस्सा बन जाता है। भूले कभी ख्याल आ भी जाए, गांव का घर, आम की छाँव, दरिया का पानी और बचपन की कहानी तो शुष्क आँखों में नमक की तरह संवेदनाओं को पोंछ कर हल्की राहत नामक पानी ले लेता है। गांव वापसी का ख्याल, ग्रामीणों से आंख ना मिला पाने की डर, उसे फुहड़ फैशन की ओर ढ़केल देता है। बेजार और बेमतलबी फितूर के कई मनोरथों को पास कभी जीत जाता, कभी  पिछड़ता हुआ। सारा जीवन गुजार देता है। ख्वाहिश इतनी की बास दीवार पर पटंगी तस्वीर को हकिकत करने का जुनून उसे मरने नहीं देता और बढ़ती महंगाई चैन से जीने नहीं देती है। इन्हीं कयासों के बीच रोजाना का एक दिन और गुजर जाता है।ऐसे ही लोगों के भीड़ के हुजूम मे से कोई मधुशाला के रस से तर होकर स्वयंभू जनाधीश बन बैठता है। झूमता, बड़बड़ाता हृदय में दर्द की दबिस के बीच रोता यत्र-तत्र नज़र आ जाता है।
              सार में कहें तो बेहद दुःखों के बीच कमाल के अदाकर ठहरे हैं, संवेदनाओं के लहरों में ये बहरे, ये अदाकार शहर नामक ठीकानों में ठहरे हैं। इसी जन समुदाय के बीच आपसी गठबंधनों के बीच खींचतान की परम्परा, संघर्ष और वैमनस्यता पनपती है। कभी धर्म, कभी जाति और कभी रोजगार वाले अग्निपथ की परीक्षा तक हो जाती है। लोकतंत्र है तो नुकसान भी जनता ही होगा, यानी जनता के द्वारा, जनता पर और जनता को ही नुकसान झेलना पड़ता है। इन संघर्षों के बीच ग्रामीण क्षेत्रों से निकलकर आए नाबालिग ख्वाहिशें इन्ही सकरी गलियों में दम तोड़ देती है। मगर इस सारी प्रक्रियाओं में खामोशी नदारद रहती है क्योंकि ये शहर है और शहर की भीड़भरी चौराहें बहुत कुछ बोलती है। भूमिकाओं से परे, शहर की आवाज का करकस गुंज सबको बहरापन देकर, खामोशी को दो फाड़ चीर देती है। ये शहर है यहाँ कामनाएं दफ़न होकर सिर्फ जरूरतों को जद्दोजहद में जोड़ देता है। क्योंकि ये शहर...है शहर...! बहुत शोर करता है। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़