(अभिव्यक्ति)
लिखें भी तो क्या लिखें, राहबर भी नुमाइंदे भटकन के लगते हैं। हालात थोड़े नाजुक हैं जनाब, बिखरें-बिखरें से आज कल अपने ही लगते हैं। कुछ शब्दों की गरिमा रखते रहे, कुछ आईने साफ करते रहे, धूल तो चश्मों ने पकड़ रखी और हम चेहरा साफ रह गए।वर्तमान का परिदृश्य भी कुछ ऐसा ही है। कुछ अतीत के नींव पर बरपाये गए पत्थर वर्तमान में बमों से बरसने लगे हैं। विस्फोट इतना की शहर-शहर गलियों में दंगों की आग सुलगने लगे हैं। विरोधों के घर्षण ने हमेंशा डेमोक्रेसी को पीछे खींचने की परम्परा का आह्वान किया है। काश ! हम समझ पाते जिनसे लड़ रहे है, जिनके लिए लड़ रहे, कहीं ना कहीं वे भी अपने से हैं। सौहार्दपूर्ण महौल की कल्पना के इर्दगिर्द बुनी गई संवैधानिक धागों में सीलन की छाया लगने लगे हैं। जन्में भी यहीं, रहे भी यहीं लेकिन तुम्हारे भी स्वर कभी-कभी पराये से लगने लगे हैं। कम्बख्त कौन पूछे रास्ते कल की, हम तो तू तू- मैं मैं बीच चौराहे पर करने लगे हैं। विचारधाराओं के इस टकराव में कहीं धार्मिकता, कहीं राजनीति जाने कितने दुकान, आपसी रंजिश के मीना बाजार में सजने लगे हैं। लेकिन फर्क किसे पड़ता है, इन झँझावतों में तो खास कूदे थे, लेकिन आम पिसने लगे हैं।
कहीं इन्हीं रंजिशों के तपिश में बेरोजगारी, विकास और अन्य समीकरणों की समीक्षा हम भूल ही रहे हैं। हम मंगल के मिशन की कल्पना करते-करते पड़ोसी घर की तलाश करने लगे हैं। कुछ तो तफ्तीश भी ऐसी की कभी तुम भीड़ दिखाकर अपना वर्चस्व सिद्ध करते, कभी हम भीड़ के शक्ल अख्तियार कर लेते, मनशां वहीं मेरी धमक है, मेरी तमक और रौनक हैं। लेकिन इसी परिप्रेक्ष्य में कहीं ना कहीं मुद्दे वास्तविकता के पीछे छूटते लगने लगे हैं। एक दौर यह भी रहा है कि साहित्य ने समाज को राह दिखाया, साहित्य ने सामाजिक चेतना खड़ी की आज उसी साहित्य के सारथी खामोशी की दुशाला ओढ़े मौन से खड़े हैं। जिन विषयों पर चर्चा और परिचर्चा, विचार-विमर्श होना चाहिए। उन्ही विषयों पर अपने-अपने तर्कों को लेकर फैसले सूनाते लोगों में वैमनष्यता के स्वर भरे जा रहे है। जैसे मेंघ में दो वरिष्ठ-कनिष्ठ बादल आपस में टकराने को आमादा है। इस टकराव की प्रयोजिता,अवलोकन और परिणाम भी विनाश को जन्म देगा। लेकिन फिर भी ऐसे टकराव के अवसरों को पनपने के लिए हवा दिये जा रहे हैं। जिन्होंने अपने बेनिफिट की गणना कर ली है, वे तो मंद-मंद मुस्कुरा रहे हैं। केवल वहीं मूर्ख हैं जो भीड़ को रोजाना शक्ल दिये जा रहे हैं।
ऐसा नहीं की कोई विरोध नहीं करना चाहते हैं। लेकिन तटस्थ उनकी भी किनारों को बहुत खल रही है। बढ़े उफान को देखकर, कुछ तो जनाब ऐसे भी हैं जो विरोधों के दौर में बीच नदी और बढ़े उफान पर फसकर बचीं जमीं बचा रहे हैं या फिर तिनकों में उनको सहारे नज़र आ रहे हैं। डर हो भी क्यों ना हो, आखिर जायें किस पार, किधर को हाँथ बढ़ाएं विरोध तो कर बैठें दोनो ओर अब गर्त आन पड़ी तो सहारे देने को लिए दोनो पक्ष के लोग मुँह चिपका रहे हैं। इस पार रहे तो भी, उस पार गए तो भी कुआँ और खाई की स्थिति बनते जा रही है। लेकिन वास्तविकता तो कहना भी जरूरी है, आखिर हम आपस में क्यों टकरा रहे हैं?
संघर्ष यदि करना है तो मिलकर गरीबी, महंगाई, भूखमरी, कुपोषण और अशिक्षा के लिए करें, न की आपसी टकराव में स्वमेंव शक्तिप्रदर्शन के चक्कर में सामाजिक पारिस्थितिकी के निर्बाध चल रहे मित्रता के स्वरों को बेसुरा कर बैठे। ये नैतिक जिम्मेदारी किसी खास की नहीं है, बल्कि इसी जिम्मेदारी प्रत्येक उस नागरिक की है जो भारतीय गणराज्य को अपना घर मानता है। जिसके लिए धार्मिक स्तर से बढ़कर भारतीयता रगों में खून के समान प्रवाहित होती है। जिसके लिए वंदेमातरम और जन-गण-मन अभिमान हो। उन्हें ऐसे समाज के उत्थान के लिए प्रेरणा बनने का दौर है। नव वैचारिकता की आग लिए तभी तो दिनकर जी कहते, 'मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।' आईये वैमनष्यता से मुक्त भावी कल को संदेश देते आज की नवीन प्राथम्य करें।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़