(विचार)
अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा और संस्कार देना प्रत्येक पालक की इच्छा होती है। कुछ हालातों के मार के कारण, तो कुछ आवश्यकताओं और लोगों के फायदे वाली मानसिकता के बीच पीस जाते है। वर्तमान समय में बाल श्रम की ज्वलंत समस्या से जुझ रहे हमारे देश में एक और चौकाने वाले आंकड़े सामने आये हैं। न्यूज़ 18 की 12 जून 2021 एक रिपोर्ट बताती है की, वर्ष 2022 भारत में 5 से 14 साल के बच्चों की कुल संख्या 25.96 करोड़ है। इनमें से 1.01 करोड़ बच्चे हैं जो श्रम करते या इन्हें सीधे शब्दों में बाल श्रमिक कह सकते हैं। ये वो भीड़ है जो कामगार की भूमिका में हैं। इन आंकड़ों से ज्ञातव्य है कि 5 से 9 साल की उम्र के 25.33 लाख बच्चे काम करते हैं। 10 से 14 वर्ष की उम्र के 75.95 लाख बच्चे कामगार हैं। ये बच्चें जो विभिन्न सेवा क्षेत्रों में कार्यरत हैं। बालश्रम की व्यथा को इंगित करती भारतीय सिनेमा में 1952 को आई चलचित्र बूट- पॉलीश का एक गीत जो शैलेंद्र जी ने लिखा था, 'नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में क्या है?,मुट्ठी में है तक़दीर हमारी। हम ने क़िस्मत को बस में किया है।' चलचित्र में भोला और बेलू दो भाई बहनों की कहानी में माता के स्वर्गवास और पिता के कारावास के पश्चात् जीवन में आने वाले उतार-चढ़ाव, भूखमरी, बालश्रम और भिक्षावृत्ति के इर्दगिर्द बुनी गई इस कहानी का सुखांत दोनों को विद्यालय जाते दिखाया गया है। इस चलचित्र की प्रासंगिकता आज की बालश्रम समस्या को इंगित करती ज्वलंतता के चादर ओढ़े नजर आ रही है।
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के 182वें कन्वेंशन के अनुच्छेद 3 के तहत बाल श्रम को परिभाषा के अनुसार, 'दासता के समान सभी प्रकार की दासता या प्रथाएं, जैसे बच्चों की बिक्री और तस्करी, ऋण बंधन और दासता और जबरन या अनिवार्य श्रम, जिसमें सशस्त्र संघर्ष में उपयोग के लिए बच्चों की जबरन या अनिवार्य भर्ती शामिल है। वेश्यावृत्ति के लिए,अश्लील साहित्य के उत्पादन के लिए या अश्लील प्रदर्शन के लिए बच्चे का उपयोग, खरीद या पेशकश।अवैध गतिविधियों के लिए बच्चे का उपयोग, खरीद या पेशकश, विशेष रूप से प्रासंगिक अंतरराष्ट्रीय संधियों में परिभाषित दवाओं के उत्पादन और तस्करी के लिए। वह कार्य जो अपनी प्रकृति या जिन परिस्थितियों में इसे किया जाता है, बच्चों के स्वास्थ्य, सुरक्षा या नैतिकता को नुकसान पहुँचाने की संभावना है।' वहीं भारत में केन्द्रीय बाल-श्रमिक (नियमन एवं नियंत्रण) अधिनियमानुसार 1986 कोई भी ऐसा श्रमिक जो 14 वर्ष की आयु पूर्ण नहीं किया है,वह बाल श्रमिक माना जायेगा। बच्चों के सर्वांगीण विकास एवं अनिवार्य शिक्षा के इस दौर में भी बढ़ते बाल श्रमिकों की संख्या चिंता का विषय है। बाल श्रम के परिप्रेक्ष्य में सन् 1953 इग्लैंड में चर्टिस्ट आंदोलन में सर्वप्रथम बाल-श्रम की अमानवीय प्रक्रिया की ओर विश्व का ध्यान आकृष्ट हुआ। उसी समय विक्टर क्यूंगों आस्कर, बाझुण्ड आदि साहित्यकारों ने अपनी साहित्य के माध्यम से उस विकराल समस्या को गंभीरता प्रदान किया। मानव से अधिक कार्य लेकर कम मजदूरी देना प्रकृति पूंजीवादी प्रकृति की है।
ऐसा तो बिलकुल नहीं है की कोई विधान इतने सरल या निष्क्रिय नहीं है की आज भी बालश्रम के लिए नवनिहालों को श्रम की ओर धकेलने पर कार्रवाई न हो। लेकिन कुछ गिरोह भी ऐसे है जिनके सिर पर ऊँचे तबके और रसुखदार लोगों के हाथ होने के कारण आज भी बालश्रम पूरी तरह से खत्म नहीं हो पाया है। बच्चों के अपहरण से लेकर जबरन श्रम करने वालों का गिरोह आज भी सक्रिय है। दूसरी ओर गरीबी,काम की अल्पता और भूखमरी से जुझते परिवार के लोगों को बरगलाने और बच्चों को श्रम के लिए प्रेरित करने वाले तथाकथित ठेकेदारो की कमी नहीं है। संगठित क्षेत्रों में बकायदा बालश्रम के निषेधता का प्रतीक बोर्ड ठोक-कर भीतर बाल मजदूरी कराते कई जगहों को सोदाहरण देखा जा सकता है। जब कभी रूटीन जाँच हो, तो कभी चाय-पानी की परम्परा या फिर मोटी रकम की सफेद पट्टी जाँच में लगे निगेहबानों की आँखों में चढ़ा दिये जाते हैं। बहरहाल, इमानदारी के सच्चे सिपाही ऐसे मसलों को उजागर कर वर्तमान के बालश्रम के अपराधों की घटनाओं को सुर्खियों में ला खड़ा करते हैं। वहीं चाइल्ड पोर्नोग्राफी पर सख्त कदम भी सराहनीय कदम है। संभवतः ऐसे प्रचार, प्रयोग और निर्माण को पूर्ण अवैध कर दिया गया है। जिससे इसके प्रासंगिक होने पर पूर्ण लगाम तो तय हो गया है। लेकिन आज भी कारखानों सहित विभिन्न क्षेत्रों में भावी तकदीर को जागने के एतबार में बच्चे/बाल श्रमिकों के हाथों की लकीरों में शिक्षा की रेखा मिटती जा रही है। जो आने वाले समय में समाज के लिए यथार्थ नहीं है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़