अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता या वाक स्वतंत्रता किसी व्यक्ति के लिए या समुदाय के लिए अपने मत और विचार को बिना प्रतिशोध, अभिवेचन या दंड के डर के प्रकट कर पाने की वह स्थिति है जहाँ निर्बाधता अनुसरण करती है। इस स्वतंत्रता को सरकारें, जनसंचार कम्पनियाँ और अन्य संस्थाएँ बाधित कर सकती हैं। लेकिन पूर्णतः विलुप्त नहीं कर सकती हैं। मौलिक अधिकारों में से एक अभिव्यक्ति की आजादी के नींव के बैनर लिए सोशलमीडिया का जन्म हुआ है। जहाँ विचारों को अभिव्यक्त करने के लिए खुला मंच निर्मित किया गया है। लेकिन विवेकाधीन प्रश्न उठता है कि भावनाओं, व्याख्यों का पांडित्य प्रदर्शन तो ठीक है। मगर, अपने वर्चस्वपूर्ण विचाराधीन क्या कोई व्यक्ति या संगठन के द्वारा प्रायोजित भाषा में शिष्टता या अशिष्टता का मापदंड तुलनात्मक विश्लेषण होना अवश्यक है। या फिर अभिव्यक्ति की आजादी कह कर टाल देना न्यायोचित प्रदर्शित नहीं होता है। अतीत के कुछ अभिव्यक्ति के संतुलन को केंद्रित करती संत कबीरदास जी के दोहे का अनुसरण करें। वे कहते हैं, 'ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोये। औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए।।' हमनें सालों पहले ही शिष्टता और फ्रीडम ऑफ़ एक्सप्रेशन के संतुलन को संदर्भित कबीरदास जी के दोहे में, वाणी के माधुर्य और प्रायोजन के संदर्भ में कहते हैं कि, हमें दूसरों से ऐसे विचारों, शब्दों का प्रयोग करना चाहिए। जिससे मन में शील भावना यानी शांति का विकास हो, वह शब्द संयोजन जो दूसरों के लिए कष्ट कारक ना बने। अपितु, उन्हें भी शांति का अनुभव दें। विचार करें तो कबीर दास जी ने बड़े ही सहज भाव और सरलता से माधुर्यता पूर्ण वाक्यांशों को प्रासंगिक करने का संदेश दिया है।
लेकिन वर्तमान दौर की प्रासंगिकता कुछ और ही कहानी बयां करती है। सोशलमीडिया, जिसका गठन ई-वैश्विक ग्राम के रूप में किया गया था। जहाँ सूचनाओं, भावनाओं और सांस्कृतिक वैचारिकता को एक दूसरे के बीच में रखने का प्रयास किया गया, जोकि वर्तमान परिदृश्य को देखने से पूर्णतः भटकाव की स्थिति के परिमाण के इर्दगिर्द घूमती नज़र आती है। ट्रोल्स नामक हास्य विनोद भाव वाले शब्द की पूरी परिभाषा ही सोशलमीडिया के जागरूक नागरिकों ने बद दी। ये ऐसे बुद्धिजीवियों का झुण्ड है जो ट्रोल्स के नाम पर शब्दों की गरिमा को तार-तार कर देते हैं। अश्लील, अशिष्ट और अपशिष्ट शब्दों के प्रयोग के बीच अपने आप को कुल दिखलाने की मानसिकता कहीं न कहीं इन बुद्धिजीवियों को मानसिक रूप से बिमार करने के लिए काफी है। कुछ तो ऐसी मानसिकता के धनी हैं जो बेतुके शब्दों को तर्क और कुतर्क के माध्यम से अपना एजेंडा पूर्ण करने में तुले रहते हैं। शब्दों के आवाजाही वाले इस प्लेटफार्म में कुछ अच्छे उदाहरण भी हैं लेकिन अधिकांश कबाड़ में ढ़ेर के समान शब्दों का रोपण करते दिखाई देते हैं। वहीं हिंसा भड़कने के पूर्व की स्थिति का बीजारोपण भी सोशलमीडिया के संसाधनों में होता है। अपने वर्ग को उच्च और अन्य को निम्न या कमतर समझने की भावना कहीं न कहीं अभिव्यक्ति के अतिव्यापन की ओर तीव्र हो जाती है। यही अतिव्यापन की स्थिति दो व्यक्ति, दो संगठनों, दो संस्था या दो विचारधारा के बीच के संघर्ष को तेज करती है। सामाजिक चेतना और लोगों के बीच लोकप्रिय होने की मनशा के संदर्भ में भी यही समीकरण कार्य करता है। बहरहाल, सोशलमीडिया के जटिल भावनात्मक एवं वैचारिक समीकरण के उलजलूल तरिके, तर्कों और प्रदर्शन से एक द्वेष एवं वैमनस्य की भावना को हवा देते हैं।
बड़ी बात यह है कि सोशलमीडिया में प्रायोगिक हो रहे भाषाओं की सीमा एवं शब्दों के नग्नता पर अभी तक कोई कार्रवाई देखने को नहीं मिलती है। अभिव्यक्ति की आजादी की एक निर्धारित सीमा भी है जो किसी अन्य व्यक्ति विशेष, संगठन, समूह या विचारधारा के अभिव्यक्ति क्षेत्र में अतिक्रमण ना करें। ऐसे प्लेट्फ़ार्म में अधिकांश बालिकाओं, महिलाओं पर टार्गेटिव कमेंट्स आलोचनात्मक श्रेणी में होते हैं। जो उनकी निजता में खलल का परिचायक है। कुछेक कार्रवाई तो हुए हैं लेकिन वे सभी किसी विवाद या टिप्पणी के कारण हुए है। सोशलमीडिया में भाषात्मक प्रयोग और अशिष्ट शब्दों के प्रयोग और इन शब्दों को सरगम की भांति प्रासंगिक बनाती विडियो की भरमार है। जो किसी विडम्बना से कम भी नहीं है। जैसे ओटीटी प्लेटफार्म्स पर निर्धारित कुछ प्रतिबंध लगे हैं। ठीक वैसे ही सोशलमीडिया के संसाधनों के उपयोगकर्ताओं के अशिष्ट व्यावहारिकता पर नकेल लागने की आवश्यकता है। प्रतिबंध और नियमों की आधारशिला रखना वर्तमान की मांग है। वर्ना अभिव्यक्ति के आजादी के नाम पर नग्नता को ग्राही भावी संस्कृति के जन्म का दुष्कारण हम होंगे। नियमों और कड़ी कार्रवाई के मद्देनजर बहुत से असामाजिक वैचारिकता पर लगाम संभव है। ताकि यह हम स्वच्छ सोशलमीडिया के निर्बाधता पूर्ण वातावरण में ई-वैश्विक ग्राम की कल्पना को आत्मसात कर सकें।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़