(अभिव्यक्ति)
यदि किसी तर्क का विरोध है तो उसके लिए न्यायपालिका की व्यवस्था हमारे संविधान में है। लेकिन कुछ विशेष वर्ग की नुमाइंदगी करने वाले कुछ लोगों की मानसिकता ईंट का जवाब पत्थर से हल निकालने वालों की है। संभवतः वे भूल रहे हैं की यह वर्तमान आधुनिक युग है जो लोकतंत्रिक है,ना की पाषाणकालीन जो जब मन किया पत्थर उठा लिया और फेंकने में मसरूफ़ हो गए। ऐसा तो कताई नहीं होता है। और ना तो पढ़े लिखे, सभ्य जमात को यह शोभा देता है। लोकतंत्र की अवधारणा को जब मूर्त रूप दिया जा रहा था। तब यूनानी दार्शनिक वलीआन ने लोकतंत्र को इस प्रकार परिभाषित किया है, 'लोकतंत्र वह होगा जो जनता का, जनता के द्वारा हो, जनता के लिए हो।' सारांश में कहें तो मैं, आप और हम सभी जिस निश्चित क्षेत्र में राष्ट्र सीमा निहित और विधि द्वारा स्थापित है,जहां हम जनता अपने प्रतिनिधित्व का चयन करते हैं, यहीं हमारा लोकतंत्र है। स्वच्छ लोकतंत्र की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है की हम अपनी बात को खूलकर कह सकते हैं। हम अपनी अभिव्यक्ति को लोगों तक पहुँचा सकते हैं। लेकिन अभिव्यक्ति का स्वरूप कभी-कभी भी समाज या सार्वजनिक स्थलों या लोगों को क्षति पहुँचाने के उद्देश्य से नहीं हो सकता है। यह वास्तव में सीधे-सीधे जनता का विरोध है और लोकतंत्र का अवरोधक है। वहीं ऐसे मानसिकता से ग्रसित कुत्सित लोगों के सानिध्य करने वालों को भी सहीं और गलत में फर्क करना आवश्यक है। अंधानुयायी बनना आज भी आदमीयत के खिलाफ़ प्रदर्शित होता है। जहाँ केवल एक विचारधारा या पंथ को प्रमुख और शेष को गौण मानना या गौण को खंडन कर अपने में समाहित करने की विचारोत्पत्ति उसके मार्गदर्शकों के द्वारा बरगलाने और पथभ्रष्ट करने की मनशा का पर्याय है। एक लोकतंत्र की परिभाषा को गर्व से स्वर देते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति अब्राहम लिंकन कहते हैं कि, 'लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए तथा जनता द्वारा शासन है।' यानी यहाँ किसी धर्म, पंथ, विचार, संगठन, संस्था या समूह की बात नहीं हो रही है। यहाँ बात हो रही है आम लोगों की यानी आदमीयत की, मानवता की, व्यक्ति की, जो इस प्रकृति में एक समान है। जिसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण में होमोसेपियंस ही कहा जाता है। जिसकी कोई जाति, धर्म या रंग, भाषा से कल्पना नहीं बल्कि उसके समरूप की कल्पना होती है। जिसे समानता का अधिकार प्राप्त है। जिसे अन्य नागरिकों की भातिं ही मूलाधिकार प्राप्त हैं।
लेकिन दुर्भाग्य यह भी है की कुछ लोग जो सारे अधिकारों का उपभोग करते हैं। रहते भी यहीं है। लेकिन राष्ट्र की भक्ति के दौर में न जाने कैसे एक कदम पीछे खींचने में आतुरता प्रदर्शित करते हैं। ये ऐसे लोगों का झुण्ड है जो विशेष वर्ग को प्रतिनिधित्व तो करते हैं, लेकिन मार्गदर्शन दर्शन में केवल और केवल विरोध के स्वरों को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक संचारित करते हैं। यही वैमनस्य पून: किसी ना किसी वृहद विस्फोट का रूप धर लेता है। फिर इन्सानियत शर्मशार होती है। लेकिन जाति-धर्म की रार में सुलह की किरण खामोश ही दिखाई देती है। जो लोग अपने आप को अल्प या कम की संख्या में प्रदर्शन करते हैं। अक्सर वे अपने हितों के संरक्षण के दौर में अपने आप को शोषित, प्रताड़ित और व्यथित बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते, लेकिन इनके स्वमेव के द्वारा किए गए सामाजिक खलल् की गणना कम भी तो नहीं है। लेकिन यह वृहद संख्या वाले वर्गों के विशाल और शांति प्रिय हृदयों के कारण है जो सामाजिक ढांचा में छूट-पूट परिवर्तन देखने को मिलते हैं। यदि ये भी पत्थर से अपने समस्याओं का हल तलाशने लगे तो फिर जो अल्प हैं उनके लिए तो बड़ी विपदा आन खड़ी, जैसी स्थिति के द्योतक हैं। लेकिन यहीं वृहद वर्गी लोगों की वयस्कता का प्रमाण है की वे लोग लोकतंत्र और न्यायपालिका में विश्वास रखते हैं। न की हिंसा और दंगों की आड़ में अपने मनोरथ को साधने की प्रयास करते हैं।
वर्तमान में कुछ लोगों के घरों के गिराने को लेकर कई तर्कों का समीकरण और इन कार्रवाईयों के मीनमेख निकालने वालों की कमी नहीं है। कुछ इसे रैपिड एक्शन कह रहे हैं, तो कुछ मानवता के खिलाफ देख रहे हैं। बड़ा प्रश्न यह उठता है की हम संविधान से संगठित भारतवर्ष के किसी भी कोने में मूल अधिकारों के हनन के विरुद्ध कोई कार्रवाई संभव ही नहीं है। फिर इन कार्रवाईयों में जो कानून के निर्धारित प्रणालियां है उनका पालन करते ही कार्रवाईयों का दौर चला है। वे निर्माण कार्य वैसे भी अवैध थे। तो इन्हे तोड़ने के संदर्भ में तर्क देना की पत्थर तो किसी व्यक्ति विशेष ने मारा था पूरे परिवार की क्या भूमिका है? ऐसे प्रश्नों के उद्गार कहीं ना कहीं, एक गंदी मछली और तालाब वाली कहावत को प्रदर्शित भी करते हुए, उस मछली के संरक्षण को आवश्यक भी बताते मानसिकता को प्रदर्शित करते हैं। इससे यह तो साफ है की पत्थर उबालने वाली मानसिकता पर बुलडोज़र की संकल्पना कहीं ना कहीं दोबारा पत्थर उबालने के विचार को पूर्णतः अवरोध उत्पन्न करें। वहीं वैचारिक विवादों के लिए कानून का मंदिर है, कानून को हाथ में लेने की भूल करने वालों को चेतावनी भी तो आवश्यक है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़