(अभिव्यक्ति)
हसदेव अरण्य और वहाँ के वन्य जीव संकट के घड़ी में छत्तीसगढ़ के तीन करोड़ जनता की ओर होकर देख रहे हैं। बड़ा सवाल है की क्या छत्तीसगढ़ के लोग एकजुट होकर हसदेव वन के क्षरण को रोक पायेंगे? या फिर आशाओं के बीच बिलखते वन कटा दिए जायेंगे?
कोमरम भीम ने 1940 में सर्वप्रथम आदिवासी आंदोलन में जल जंगल जमीन का नारा दिया था। तत्कालीन समय में निजाम के विरूद्ध उनके आंदोलन में उन्होंने तर्क दिया कि आदिवासियों को जंगल के सभी संसाधनों पर पूर्ण अधिकार होना चाहिए। कहने का तात्पर्य है की जंगल की जमीन पर प्राकृतिक सत्ता ही कायम रहे। वहाँ व्यवसायिक और लाभांश तलाशने वाले विचारों की कोई आवश्यकता नहीं है। यह उस समय की बात रही, आजादी के पश्चात वन, वनोपज, वन संरक्षण को लेकर कई अधिनियम बने और बनते रहेंगे।
आदिवासी आंदोलन के परिणित कई परिवर्तन हुए है। जब-जब जल, जंगल और जमीन के आस्मिता पर आँच आई है आदिवासी सुकुमार रक्षण के लिए तत्परता से खड़े होते हैं। छत्तीसगढ़ में वर्तमान में हसदेव अरण्य बचाओ के नारें,विरोध के स्वरों के बीच पून: एक आदिवासी आंदोलन का प्रादुर्भाव होते प्रतीत हो रहा है। इस बार की लड़ाई में आदिवासीयों का सामना राजनीतिक गलियारों और पूँजीपतियों के एकजुटता के गठजोड़ से है।
आईसीएफआरई अध्ययन के मुताबिक हसदेव अरण्य का कोयला क्षेत्र 1,879.6 वर्ग किलोमीटर (रायपुर से आठ गुना अधिक क्षेत्रफल) में फैला है। इसमें 23 कोल ब्लॉक शामिल हैं। वहीं दूसरी ओर मध्य भारत में लगभग 27,000 जंगली हाथियों की कुल आबादी का 10% रहता है। स्थानीय लोक-कथायें बताती हैं कि कभी इस क्षेत्र से हाथियों को पूरे उपमहाद्वीप में भेजा जाता था। हाथियों के आस-पास मौजूद होने के चलते पारंपरिक घरों को इस तरह से बनाया जाता रहा है कि अन्न भंडारों को हाथी के हमले से सुरक्षित रखा जा सके। यह आदिवासी वन बाकुंरों के ईको इंजीनियरिंग का नमुना है की इन घरों में एक तरफ का दरवाज़ा ख़ास तौर पर परिवारों के लिए होता है। ताकि अगर कोई हाथी घर की तरफ़ रुख़ करता है,तो इस दरवाज़े से सुरक्षित निकला जा सके।
पक्ष-विपक्ष की रस्साकशी में हसदेव के क्षेत्रफल को लेकर तनातनी होते रहा है। पहले विपक्ष रहे सरकार के हाथी रिज़र्व के लिए महज 400 वर्ग किलोमीटर का प्रस्ताव की दलीलें देकर,वर्तमान में सत्तारूढ़ स्थिति में बढ़ाकर 1950 वर्ग किलोमीटर विस्तारकरण को अपने पीठ थपथपाई का विषय मानने लगी है। वहीं बातो ही बातों में सबसे बड़े हाथी रिजर्व की संज्ञा भी दे दिया गया। अगस्त 2019 में 1995.48 वर्ग किमी का लेमरू हाथी रिजर्व बनाने का प्रस्ताव पारित किया। बाद में हसदेव और चरनाेई नदियों के कैचमेंट को भी इसमें शामिल कर इसे 3 हजार 827 वर्ग किमी करने पर सहमति बनाई गई। लेकिन, मई में वन विभाग ने लेमरू का क्षेत्रफल 1995.48 वर्म किमी की बजाय इसे 450 वर्ग किमी तक सीमित करने की कवायद की। वन विभाग के इस प्रस्ताव का खूब विरोध हुआ और विपक्ष ने भी सवाल उठाए गए। कुछ अवरोधों के बीच पून: एक शून्यता का भाव उत्पन्न हो गया। एक दूसरे पर छीटाकाशीं के दौर में पूँजीपति एवं उद्योगपति वर्ग के द्वारा ठेकेदारी पर हसदेव अरण्य के कुछ हिस्से में एक कोयला ब्लॉक में कार्य चालु हो गया। इस खदान के लिए 100,000 से अधिक पेड़ों को काट दिया गया।
अधिकतर कोल ब्लॉक 10 किमी की परिधि से भी बाहर हैं। लेकिन फिर भी न हसदेव बचने वाला है और न ही हाथियों का उत्पात कम होगा। वहीं खनन से उत्पन्न प्रदूषण का असर निश्चित है की हसदेव अरण्य के पारिस्थितिकी पर पड़ेगा। हाथियों के नैसर्गिक पर्यावास से पलायन को बढ़ाने वाली कोई भी नकारात्मक गतिविधि इस स्थिति को भयावह बना देगी जिसे संभालना बेहद ही कठिन कार्य है। संकटग्रस्त स्तनपायी वन्य जीवों (मेमल्स) के अलावा,82 चिड़ियों की ऐसी प्रजातियाँ हैं जो 6 अनुसूची-1 में शामिल हैं। सफेद आंखों वाली वजर्ड, ब्लैक सोलजर्स काईट आदि हैं। तितलियों की लुप्तप्राय प्रजातियां और सरीसृप (राइप्टाइल्स) भी पाये जाते हैं। समृद्ध प्राणी जगत की मौजूदगी के साथ साथ इस क्षेत्र में 167 से ज़्यादा प्रजातियों के पेड़ पौधे हैं। जिनमें 18 प्रजातियाँ बेहद संवेदनशील हैं और संकटग्रस्त हैं। स्थानीय आदिवासी समुदायों की निर्भरता इस क्षेत्र के वनों पर आधारित है। उनकी वार्षिक आय का लगभाग 60 से 70 प्रतिशत इसी जंगल से हासिल होता है।
हम अपने फायदे के लिए कब तक वनों, वन्यजीवों, वन्य प्राणीयों की हत्या पर आमादा रहेंगे। विकास के नाम पर, औद्योगिकीकरण करे नाम पर, प्रकृति के गर्भ का क्षरण करते रहेंगे। तेरा-मेरा, उसने किया- मैनें किया इस सभी कवायदों के बीच हम क्या कर सकते हैं। इस विषयक हमें अपना दृष्टिकोण प्रगाढ़ करना होगा। कोल-माइंस और खदानों के मशीनरी के बीच वनों के कटने की प्रक्रिया निरंतर जारी है। जिसके परिणामस्वरूप प्रदूषण ही अंततः प्राप्त होगा। हसदेव के हरे भरे जंगलों को खनन के तेजाब से नहलाने की क्या वास्तव में आवश्यकता है? यह एक बड़ा प्रश्न है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़