Friday, May 13, 2022

जल संरक्षण का मानकीकरण वर्तमान की प्रासंगिकता : प्राज/ Standardization of Water Conservation Current Relevance


                        (अभिव्यक्ति

अंडा के महल बनाय, सुग्घर पथरा के छानी। 
दुनो कान म गजमुक्ता पहिने, महाराजा बेचे पानी।



ये पंक्तियाँ छत्तीसगढ़ी मौखिक कहानियों में से एक है। जो एक सियार पर आधारित कहानी है। वह जंगल के तालाब का कोतवाल होता है। जंगली जानवरों को पानी पीने से पहले सियार के तारिफ़ में ऊपर अंकित पंक्तियों को कहना पड़ता था। जंगली जानवर पानी पीने से पहले वहीं पंक्ति दोहराते थे। सियार खुश हो जाता था। फिर पानी पीने के बाद जंगली जानवर सियार की वास्तविकता का बखान कर चिढ़ाते हुए कहते की, 

माटी के महल बनाय, अऊ डारा-पाना के छानी। 
दोनो कान में बेंगवा पहिने, कोलिहा बेचे पानी।

तात्पर्य यह था कि पानी के संरक्षण और महत्व पर केन्द्रित यह कहानी बेहद सरल और सहज ढ़ंग से छत्तीसगढ़ के प्रत्येक घरों में बड़े बुजुर्ग अपने नवीन पीढ़ी के कहानियों के रूप में सुनाते आ रहे हैं। पानी के स्थान पर सभ्यताओं का विकास तो हम देख ही चुकें है। जीवन के लिए अभिन्न आवश्यक है पानी। पानी जिसकी ना कोई जाति है, ना धर्म है, ना वाद है, ना पंथ है। पानी जो अमुल्य है, जिसकी उपयोगिता और संरक्षण के लिए गढ़े गए कहानियों में एक दूरदर्शिता थी। जो वर्तमान के दौर में प्रासंगिक नजर आ रहे हैं।
                 बारिश के पानी को संग्रहित करने के कई पैतरों आजमा चुके राजस्थान के थार मरुस्थलीय क्षेत्र को लोग गर्मी से लड़ते सदियों से जीवन यापन कर रहे हैं। इस क्षेत्र में औसतन 380 मिलीमीटर बारिश होती है। जैव विविधता से परिपूर्ण यह क्षेत्र रही है। इस भूमि राष्ट्रीय औसत बारह सौ मिलीमीटर माना गया है, वहीं राजस्थान में बारिश का यह औसत करीब 531 मिलीमीटर है। क्षेत्रफल की दृष्टि से राजस्थान समूचे देश में सबसे बड़ा राज्य है और इसका दो-तिहाई हिस्सा थार मरुस्थल का है। गर्मी के दिनों में सुबह तीन से घर की महिलाओं का पानी के तलाश में जुट जाती हैं। पहले किसी जलस्त्रोत से पानी के लिए जद्दोजहद करती जिंदगी फिर पैदल गर्मी के तपते रेत में चलना कठिनाई भरा तो है। साथ में परिवार के लिए स्वच्छ जल की मांग पूरी करने की जिम्मेदारी भी है। भारत-पाकिस्तान की अंतर्राष्ट्रीय सीमा से महज 2 किलोमीटर की दूरी पर बसे पादरिया गांव के लोग कहते हैं कि यहां पर गर्मियों के दिनों में तापमान 48 से 50 डिग्री तक पहुंच जाता है। सोचिये जहाँ के इतने तापमान में पानी की एक बूंद टपकते ही चन्न करती वाष्प बनने को मजबूर हो। वहाँ के लोगों को पानी की कितनी भारी किल्लत का सामना करना पड़ता होगा? यह विचारों से अपरिमेय है।
               भारत के पूर्वोत्तर में मिजोरम में लगभग 254 सेमी की वार्षिक वर्षा होती है। पहाड़ी चोटियों के रहवासियों के लिए आमतौर पर पानी की कमी से पीड़ित होते हैं क्योंकि वर्षा का पानी खड़ी पहाड़ी ढलानों से तेजी से बह जाता है। इन क्षेत्रों की महिलाओं को पानी के संग्रहण करना बेहद मुश्किल भरा होता है। मेघालय,मिजोरम, त्रिपुरा एवं नागालैंड के लोग पारंपरिक तरीकों से बारिश के पानी का भंडारण और संचयन करते हैं। इसे रूफटॉप हार्वेस्टिं' के रूप में जानी जाने वाली एक विधि - जिसमें टैंकों में वर्षा जल एकत्र किया जाता है। इस पानी का उपयोग सीधे उपभोग के लिए और साधारण निस्पंदन उपकरणों के माध्यम से भूजल को रिचार्ज करने के लिए किया जा सकता है। लेकिन वर्तमान दौर में पानी की किल्लत कम होने का नाम भी तो नहीं लेतीं है। 
             समुद्रतटीय राज्य तमिलनाडु में बारिश के अल्पता के चलते जलस्तर वैसे भी गिर चुके थे। पानी की अनुपलब्धता के चलते शैक्षणिक संस्थानों के हास्टल बंद करने के दौर में गुजर रहे हैं। पानी की पूर्ती के लिए पानी का टैंकरों के माध्यम से पानी की सप्लाई एक शहर से दूसरे शहर तक स्थानांतरित करने की नौबत आ गई है। शहर-शहर सिर्फ पानी के लिए गलियों में लगती लम्बी लाइनें बर्तनों से भरे रोड़ देख कर पानी के कमी का अंदाज़ा लगाया जा सकता है। 

  वहीं उत्तरी भारत में लदाख के ट्रांस-हिमालयी रेंज के लेवर्ड साइड में स्थित, क्षेत्र में दक्षिण-पश्चिम मानसून से कोई वर्षा नहीं होती है। यहां पर न केवल घटती वर्षा प्रदर्शित हैं, बल्कि इसके समय में अप्रत्याशित परिवर्तन भी हो रहे हैं। एक सामान्य वर्ष में, इस क्षेत्र में नवंबर और जनवरी में अधिकतम हिमपात होता है, जिससे बर्फ जमा हो जाती है और जम जाती है। कुछ देरी से सहीं लेकिन हिमपाक होता है, लेकिन बसंत के बाद, हिमस्खलन या बाढ़ का खतरा पैदा करती है जो बाद में सूखा की ओर इशारा कर रहे हैं। पर्याप्त हिमनद नहीं जमने के कारण, वे बहुत तेजी से पीछे ग्लेशियर पिछे हटने लगते हैं। कम होते ग्लेशियर के कारण इस क्षेत्र में जल स्तर तो नीचे जा ही रहा है। साथ में स्वच्छ जल की अवस्थिति भी कम होने की ओर आमादा है। लदाख के सोनम वांगचुक जो अपने नित नुतन प्रयोगों के लिए दुनिया में मशहूर हैं। सोनम ने लद्दाख में पानी की कमी से जूझ रहे लोगों के लिए आइस पिरामिड को एक बेहतर विकल्प के तौर पर देखते हैं। जिससे यहां लंबे समय के लिए पानी स्टोर किया जा सके। इस पिरामिड से लद्दाख में पानी की कमी और सिंचाई की मुश्किलों से पार पाया जा सकता है। लेकिन वर्तमान स्थिति में पानी की किल्लत यहाँ भी है।
           मध्यभारत के कई इलाके ऐसे हैं जो पेयजल की संकट में सूखा का मार झेल रहे हैं। वहीं दूसरी ओर कुछ नगरों से दूरस्थ ग्राम भीं है जो स्वच्छ जल की जगह दूषित जल पीने पर मजबूर हैं। जल जो जीवन है और जीवन जीने के लिए पानी की पूर्ति का संघर्ष गर्मी के दिनों में भीषण रूप ले लेता है। एक जो गिरता जलस्तर दूसरी ओर जल प्रदूषण से भारी मात्रा में स्वच्छ जल की कमी से ये हालात और बद से बदतर की स्थिति की ओर लालायित प्रदर्शित होती है। जल संसाधन के संरक्षण के लिए कई प्रयास किये जा रहे हैं। लेकिन समूचित प्रयासों के बीना यह कागजों में दौड़ती योजनाओं की भांति प्रतीत होने लगते हैं। एक तबका ऐसा भी है जो जल के संरक्षण के लिए दिन-रात कोशिशें कर रहा है। तो दूसरी ओर ऐसे लोगों की भीड़ है जो पानी को पैसे के नोक पर व्यर्थ व्यय के रूप में बर्बाद कर रहे हैं। भावी कल की नितांत आवश्यकताओं के फेहरिस्त में जल का नाम सर्वोपरि है क्योंकि जल है तो कल है। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़