(अभिव्यक्ति)
शीर्षक के प्राथम्य से पाठक को बांधने का प्रयास तो हर लेखक करता है। मेरा भी विचार वही है, लेकिन तर्कों का माला और समुचित साक्ष्यों के हाला को बीच उलझा परिणाम के स्थापना के लिए निरंतर प्रयास कर रहा हुँ। बात है अर्थ के अलंकारों से लदे एक खरीदारी में माहिर छात्र ने शोध की डिग्री खरीदने की कोशिश की। ऐसा भी नहीं है की शोध की डिग्री युहीं मिल जाये, बड़ी जद्दोजहद करनी पड़ी है। उठापटक में पूरे शरीर का जान निकल जाता है। लेकिन कुछ तोल-मोल में उत्कृष्ट मानों शिक्षा के अद्यतन स्वरूप में निर्मित प्रशासनकों के नियत भी डोल जाते हैं। उस वक्त शोध की गरिमा, पराकाष्ठा सब कुछ अर्थ के भार में हल्के नजर आते हैं। लेकिन अंतिम स्थिति में पर्याप्त परिश्रम के आधार पर सोने के भाव में शोध के प्रमाण पत्र मखमली बुकलेट में लपेट कर, ढोल-ताशे के थाप के बीच दे दिये जाते हैं।
मामला, वाक्या, कथन या कपोल-सृजन जो कहें मंजूर है जनाब क्यों ये तो सिर्फ सर्टिफिकेशन के पीछे भागनें वालों की यथार्थ कहानी है। वास्तविक के धरातल में कभी बे-पनहीं चलें ही नहीं, उन्हे क्या पता की धरातलीय मजबूतीकरण का मजा क्या होता है। जनाब, एक बड़ा एजेंटशीप भी चल रहा है जो कम दम में सारा हेराफेरी कर जाते हैं। कुछ तो प्लेगरिज्म की आग की दरिया को मिनटों में पार कर जाते हैं। कुछ ऐसे प्रोफेशनल भी हैं जो ऐसे कामों में महारथी भीं हैं और इसी काम से अपने घर के चुल्हे में रौशनी ला पाते हैं। अर्थ के वजन पर डिग्रियाँ तौल तो जैसे नापतोल के दुकान के विषय में संभवतः आपका ध्यानाकर्षण नया हो, लेकिन कभी खबरों सुर्खियों की खाक छान कर देखिए। कई रंगें हाथों के मालिकों के नाम भी अखबारों में पाये जाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है की सभी के सभी पाक साफ हैं या फिर सभी के सभी दागदार है। कुछ डोपिंग तो कुछ कंचन भी निकलते हैं। क्योंकि मेधावी अक्सर रिपोर्ट कार्ड के भरोसे ही नहीं, बल्कि उत्कृष्टता के दम पर आगे बढ़ते हैं।
इसके पश्चात भी ऐसे लोगों में प्रमाण पत्रों की होड़ खत्म नहीं होती है। वे लगातार इस फिराक़ में रहते हैं की कहीं से कोई ना कोई प्रमाण पत्र का जुगाड़ हो जाये। इस जुगत में लगे भी ऐसे रहते हैं मानों सच्चे साहित्य के साधक हो। प्रदर्शन तो ऐसा की बड़े से बड़ा ख्यातिप्राप्त विद्वान भी इनके प्रति में मीनमेख ना डाल पाये। बहरहाल, वैसे अनिवार्य पद्धति से इतर टेबल के नीचे से रिश्वत खिसकाते इनकी नैय्या पार हुई है। सो इसके फलन में कॉपी पेस्ट की परम्परा को आगे बढ़ाने में इनका बड़ा योगदान है। अपने से नीचे आने वाले विद्यार्थियों के पीढ़ी में जैसा राग वैसा अलाप वाली स्थिति से गुजार कर आगामी भविष्य को पूरी तरह से मटियामेट करने में ऐसे विचारधारा के लोगों का योगदान बहुमुल्य है।
लेकिन मानवीय स्तर पर क्या यह प्रश्न नहीं उठता होगा की वे जो कर रहे हैं क्या वास्तव में यथार्थ है? या फिर केवल प्रमाण पत्रों की सैय्या बनाकर तारीफों के चादरें ओढ़ने का शौंक है, शेष नैतिकता जाये चुल्हे में । क्या कभी-भी वे उत्कृष्टता और केवल सर्टिफिकेट के बीच के द्वंद्व में अपनी वास्तव पहचान को खोजने में असमर्थ रहते हैं। इससे उनका जो बौद्धिक नुकसान होता है, वो तो अलग है। इसके साथ एक ऐसा धड़ा भी पनप जाता है जो उत्कृष्टता से कही ज्यादा प्रधानता अपनी रिपोर्ट कार्ड को देने लग जाता है। लेकिन इन्हे वास्तविक सबक तब मिलती है। जब उत्कृष्टता के प्रतिनिधि करने वाले व्यक्ति विशेष से सामना होता है। उस समय इनकी चाटुकारिता भी ऐसे विचारधारा के समर्थकों को बचाने में नाकामयाब साबित होता है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़