Friday, May 13, 2022

परम्परागत और हाईब्रिड बीज के बीच झूलती जिंदगी : प्राज / Biographical Lifespan of Conventional and Broadbreed Seeds


                      (अभिव्यक्ति


पृथ्वी पर जीवन अन्वरत चक्रण के लिए खाद्य श्रृंखला का होना आवश्यक है। अब आप कहेंगे खाद्य श्रृंखला से जीवन का क्या लेना देना है? इसे समझने का प्रयास करें, पारिस्थितिकी तन्त्र के विभिन्न जीवों की परस्पर भोज्य निर्भरता को प्रदर्शित करते हैं। किसी भी पारिस्थितिकी तन्त्र में कोई भी जीव भोजन के लिए सदैव किसी दूसरे जीव पर निर्भर होता है। भोजन के लिए सभी जीव वनस्पतियों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से निर्भर होते हैं। वनस्पतियां अपना भोजन प्रकाश संश्लेषण की क्रिया द्वारा बनाती हैं। इस भोज्य क्रम में पहले स्तर पर शाकाहारी जीव आते हैं जो कि पौधों पर प्रत्यक्ष रूप से निर्भर होते हैं। इसलिए पौधों को उत्पादक या स्वपोषी और जन्तुओं को 'उपभोक्ता' की संज्ञा देते हैं। 
           कहने का तात्पर्य है की पेड़-पौधों को हम उत्पादक कह सकते हैं। तर्ज करें की यदि यदि उत्पादक वर्ग की पोषकता नष्ट हो जाये तो निश्चय है की खाद्य श्रृंखला का चरण व्याधित होगा और स्तर दर स्तर इसका टूटना प्रारंभ हो जायेगा। यानी कृषि कार्यों में सावधानियां रखना आवश्यक है क्योंकि फसल के लिए बीजों का चयन आने वाले बीजों के पीढ़ी का निर्माण करती है। कृषि जो विश्व का सबसे प्राचीनतम व्यवसाय है। खासकर छत्तीसगढ़ में धान बीजों के संग्रह के लिए पहले घरों में कोठी का निर्माण किया जाता था। जिसमें अच्छी फसल के पैदावार देने वाले बीजों को नमूनों का संग्रह कर रख लिया जाता था। दो या तीन वर्षोपरांत् इन्ही संग्रहित बीजों से खेती होती थी। इस प्रकार बीजों का चक्रण होता था। यह केवल धान नहीं बल्कि, समस्त पौंधो, पुष्पों के चक्रण में उपयोगी होता था। 
                     अमेरिका में, 1920 के दशक में प्रायोगिक कृषि केंद्रों ने संकर फसलों की जांच की, और 1930 के दशक तक किसानों ने व्यापक रूप से पहले संकर मक्का को अपनाया था। यह औद्योगिक क्रांति के दौर में कृषि क्षेत्र में क्रांतिकारिक परिवर्तनों में से एक है। रसायन विज्ञान के परिभाषित रूप में समझने का प्रयास करें तो, संकरण - परमाणु के संयोजी कोश में उपस्थित लगभग समान ऊर्जा व भिन्न आकृति के कक्षकों के आपस में संयुक्त होकर ऊर्जा को पुनः वितरण कर समान ऊर्जा एवं समान आकृति के उतने ही कक्षकों के बनने की प्रक्रिया संकरण कहलाती है।
              कृषि के संदर्भ में शंकर बीज या हाइब्रिड सीड वे बीज कहलाते हैं जो दो या अधिक पौधों के संकरण के द्वारा उत्पन्न होते हैं । संकरण की प्रक्रिया अत्यंत नियंत्रित व विशिष्ट होती है लेकिन क्या यह कभी सोचने का प्रयास किया गया है कि उनके जेनेटिक चेंज से हमारी भी सेहत में कुछ न कुछ साइड इफेक्ट होंगे या नहीं ? 

जरूर होंगे इस बारे में हम क्यों नहीं सोच रहे हमारे देश में होने वाले बीज ,पशु ,औषधियां, फल ,फूल आदि का सेवन हम और हमारे पूर्वज सदियों से करते आ रहे हैं। वह हमें एकदम स्वस्थ पोषक प्रदान कर रहे होते हैं । आज भी जिस घर में शिशु का जन्म होता है तो देसी गाय या देसी बकरी का दूध ही लोग क्यों ढूंढते हैं? क्यों नहीं कोई संकरण-गाय का दूध बच्चे को देना चाहता?  अब लोग फिर से क्यों मोटे अनाज जो बाजरा ,सुंदरी, मक्का, चना, चटरी, मटरी आदि के आटे का सेवन कर रहे हैं। गेहूं में क्यों कटिहा और हलना आदि प्रजातियों को ढूंढ रहे हैं, जो सबसे पाचक होता था।
            वर्तमान समय में हम भोजन कर रहे हैं। वह कितना पौष्टिकता पूर्ण है हम इसके बारे में अंदाज़ा तक नहीं लगा रहे हैं। अमरूद के असल नस्ल और हाईब्रिडेजाइशन नस्ल के स्वाद में जमीन आसमान का अंतर देखने को मिलता है। वास्तव में प्राकृतिक और कृत्रिम औषध में जितना फर्क होता है। ठीक उतना ही फर्क मूल फल और हाईब्रिड फल में है। 
              जनजातियों वाले इलाके में लोगों के घर के पीछे एक छोटा सा बगीचा होता है जिसमें स्वदेशी पेड़, पौधे, जड़ी बूटियां और सब्जियां भी उगाई जाती हैं। इस बगीचे से उगने वाली सब्जियों से पूरे परिवार की खाने पीने की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। बगीचों में सब्जियां और अन्य खाद्य पदार्थ उगाने का सिलसिला पूरे साल भर चलता रहता है।
            बीएआईएफ टीम ने फसल विविधता को प्रभावित करने वाले कारकों के अलावा विभिन्न प्रजातियों के विलुप्त होने, मौजूदा फसल और उनकी विशिष्ट गुणों के कारण होने वाले संभावित कारणों पर डेटा एकत्र किया है। आंकड़े बताते हैं कि महाराष्ट्र राज्य के धडगांव और जौहर जिलों में फसलों की कई नस्लें ऐसी हैं जो कि कीटों के प्रति प्रतिरोधी हैं, ये खराब मिट्टी में भी पैदा हो जाती हैं और बदली हुई जलवायु परिस्थितियों में पनप जाती इनमें पोषकता के कई महत्वपूर्ण तत्व भी विद्यमान होते हैं। वर्तमान में, गढ़चिरौली के 15 गांव, नंदुरबार में 12, पालघर और अहमदनगर में 10, और पुणे के 5 गांव, बीज उत्पादन और पारंपरिक फसल किस्मों के संरक्षण के लिए बीज बैंक का संचालन कर रहे हैं। वहीं 54 वर्षीय राहीबाई रमा के पास 17 अलग-अलग फसलों की 48 प्रजातियां संरक्षित हैं। इसमें धान, सेम, बाजरा, दाल और तेल के बीज शामिल हैं।
                धान का कटोरा कहे जाने वाले छत्तीसगढ़ में धान की अलग-अलग किस्में, उनकी गुणवत्ता और खुशबू बीते दिनों की बात हो गई है। रायपुर के कृषि विश्वविद्यालय में धान के 24 हज़ार से अधिक, अलग-अलग किस्मों के जर्मप्लाज्म उपलब्ध हैं लेकिन ये किस्में प्रयोगशालाओं तक सिमट कर रह गई हैं। बुजुर्ग किसान बताते हैं कि परंपरागत धान की खेती में उपज भले कम थी लेकिन कीटनाशक और रासायनिक खाद की ज़रुरत नहीं होती थी।ऐसा नहीं है की हाइब्रिड के खिलाफ़ विरोधों के साथ परम्परागत बीजों के संरक्षण का प्रयास नहीं किया जा रहा है। कई किसान एवं कृषि शोधकर्ताओं के द्वारा परम्परा बीजों का संग्रहण किया जा रहा है।
            सवाल उठता है क्या हम केवल हाईब्रिड फलों, सब्जियों और अनाज पर निर्भर रहेंगे? या फिर परम्परागत् जैविक कृषि की ओर मुड़ने का दौर निश्चित है आ गया है। समय रहते हमें सजग होना ही पड़ेगा, अन्यथा खाद्यान्न के हाईब्रिड और रासायनिक उर्वरकों के कारण भूमि के उर्वरक क्षमता के नष्ट होते ही, हमारी विलुप्त होने की प्रक्रिया का दस्तक प्रारंभ हो जायेगा। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़