(परिदृश्य)
बुढ़े बरगद की तरह एक बुढ़ा अपने घर के आँगन में घर के प्रवेश द्वार के पास प्लास्टिक की कुर्सी लिए शांत बैठा सोंच रहा था। मन:पटल पर बच्चों के किलकारियां, इसी गर्मी के दौर पर आंगन के ऊपर तार से लटके करेले के लताओं के निचे हसते खेलते परिवार जिसमें दादा-दादी, चाचा-चाची, बड़े पापा-बड़ी मम्मी और मम्मी पाप के साथ आधे दर्जन बच्चों की पलटन थी। इसी गर्मी के मौसम में अमरईया से चुराए इमली के भरी दोपहरी में चुपके-चुपके बच्चों के द्वारा ईमली का लाटा कुटा जाता था। खट्टी ईमली, मिर्च और नाम के सौंध में सिलबट्टे में कुटकर लाटा तैयार किया जाता है। तेज धूप को चिढ़ाते बच्चों के चटकारों के बीच बड़े चाव से सब इमलिया लाटा खाते थे। कभी बड़ी मां के डांट-फटकार, कभी दादी की दुलार, कभी चाची के घर-घर वाले खेल में मैडम जी बनकर मेहमान बनकर आना कभी चाचू के फचफटिया में बैठ पूरे गांव की सैर, कभी पापा के तीखे तेवरों में अनुशासन सीखना। कभी दादा के संग मिलकर बचपने के खेल में रोमांच का भर उठना। कभी मिश्री सी बड़ी माँ की बोली, कभी दादी भी कहानी सुनाते- सुनाते इतना भीनी की आखें भी पानी-पानी हो लेती थी। कभी एक बिस्तरे में पूरे शैतानो की टोली सो लेते थे। बचपना, जवानी फिर यहां से व्यवसायीकरण के दौड़-धूप भी हो लिया करते थे। सबसे साथ बैठकर टीवी में संडे को शक्तिमान और प्रतिदिन रात को रामायण के दर्शन कर लिया करते थे।
खतों के दौर में डाकिया चाचा को सभी ने खूब सताया था। कभी डाकिया चाचा ने गुस्सा नहीं किया। लेकिन हमें लगता था हमने चाचा के खूब दौड़ाया है। वो सायकिल पर आगे-आगे, हमारी टोली पैदल, कभी मम्मी चिट्ठी पढ़कर रोती-बिलखती बतलाती थी, कोई गुजर गया है। फिर पीली छुही पूरे घर के हाशिये में लिपा जाता था। दादी कहती थी ऐसा करना चाहिए। इससे घर की शुद्धि होती है। खतों के दौर में डाकिया चाचा को सभी ने खूब सताया था। कभी डाकिया चाचा ने गुस्सा नहीं किया। लेकिन हमें लगता था हमने चाचा के खूब दौड़ाया है। वो सायकिल पर आगे-आगे, हमारी टोली पैदल, कभी मम्मी चिट्ठी पढ़कर रोती-बिलखती बतलाती थी, कोई गुजर गया है। फिर पीली छुही पूरे घर के हाशिये में लिपा जाता था। दादी कहती थी ऐसा करना चाहिए। इससे घर की शुद्धि होती है। कभी चिट्ठी प्यारा संदेशा लाती घर में खुशहाली का महौल बन जाता था। घर के पृथक स्थलों में हर सदस्यों का नियमानुसार, समयानुसार बैठना, उठना होता था। कुछ समय के बाद जीवन की विविध अद्यतनों में एक बड़ा परिवर्तन हुआ। यह था मोबाइल,इंटरनेट फिर सोशलमीडिया के नये -नये कलेवर का संगठनात्मक सेवाओं का उपभोग लोगों के बीच ऐसे परोसा की इसके वशीभूत होकर, हम आपसी स्नेह के सुगंधित पुष्पों को अपने ही पैरों से रौंदा है।
ऐसे ही विचारों मंचन के बीच फोन की घंटी बजी। वाट्सएप पर विडियो कॉल था। जो उस बुढ़े व्यक्ति के बेटे का था। बेटे को विडियो कॉल को काँपती-थरथराती उँगलियों से फोन उठाया। बेटे ने विडियो कॉल में बताया की 'आपकी पोती का बर्थडे है। विश कर दीजिये पापा..!!!'
मुस्कुराते हुए वह बुढ़ा बोला 'जींती रहो बेटी..!! पुरे परिवार का सुख मिले।' कुछ कहना चाहते थे। मगर बेटे ने वक्त के तकाजे के साथ कॉल कट कर दिया। वह बुढ़ा फिर से मुरुझुराहट में पूराने पलों में अपने घर की रौनक को याद कर रहा था। आँखें जो पोती को देखकर खिले थे। फिर से वह करुणा के सागर में उतर गए।
मन की उलझनों के बीच यकायक आखों के सामने अंधेरा सा हुआ। उस बुढ़े शक्स ने सोचा खड़ा होकर अपनी हालत में सुधार किया जावे। जैसे ही शरीर सीधे होने की मुद्रा में हुआ। चक्कर खाकर वह वृद्ध वहीं गीर पड़ा। आंगन की बढ़ती धूप के साथ, आखों के सामने अंधेरा बढ़ने लगा। मन में फिर से एक बार संयुक्त परिवार को देखने की लालसा में अदम्य दर्द को हृदय में महसूस करता, लगभग छटपटाने की मुद्रा में पहुँच गया। मन के मन:पटल पर जीवन के सारे सुखद- दूखद अनुभवों का छायाचित्र दिखाई देने लगा। गले में प्यास का अनुभव.....!! हृदय में वेदना....!! आँखों में अंधकार....!!!! और पैरों में फड़कने की हरकत और बढ़ता तेज धूप शरीर को गर्माहट की पराकाष्ठा की ओर ले जाने के शीर्षोपरांत वह बुढ़ा श्वास के टूटने की स्थिति के साथ कहने लगा- 'विराने के कारण मेरा घर अब मकान होने लगा है।'
थोड़ी देर के अकड़न के बाद सब शांत मानों सारी प्रक्रियाएं निर्बाध हों गई हो। अब इस वक्त वह वृद्ध अपने घर से अन्यत्र शांत और अनंत सफेदी लिए एक निर्जल जगह पर था। सफेदी के इस विशाल क्षेत्र पर कोई नहीं था। वह अपने आपको तरो-ताजा महसूस कर रहा था। उसके मन में जगह को लेकर कई सवाल पनप रहे थे। वह सोंच रहा था कि अभी तो मैं प्यास से तड़प रहा था। तेज धूप थी। मेरे मकान पर अकेले मैं था। अचानक ऐसा क्या हुआ की सारे दर्द, वेदनाओं का भवंर ही समाप्त हो गया। वह उस जगह से तेजी से भागने लगा, इधर-उधर भागता गया। लेकिन ना कोई मोड़, ना कोई रास्ता, चारो ओर केवल सफेदी का समयांतर स्थल ही था।
बहुत देर तक इधर-उधर जाने के बाद समझ आया की वह मृत्यु के शैय्या पर है। और यह स्थल अनंत शून्य की स्थिति है। जहाँ शरीर नहीं केवल आत्म अपने शीर्ष शेष पर है। संयुक्त पारिवारिक संबंधों के बीच रहने वाला वह व्यक्ति अपने वृद्धावस्था के क्षणों में अकेला रह गया। अनंत शून्य के बाहर मृत शरीर को देखने वाला कोई नहीं था। सिर्फ ईंट गारे और सीमेंट से बने रंगीन घर में, एक भी कोलाहल की ध्वनि नहीं। भला हो उस सब्जी वाले का जो रोज शाम को वापसी के समय सब्जी छोड़ने आता था। आंगन में बदहवास पड़े वृद्ध के पास पहुंचा, हिलाने-डुलाने से समझ आया की शरीर में जान नहीं है। फिर क्या था लोगों का मजमा लगते देर ना लगी। सभी इस भीड़ में लाश को देखते, ताकते रहे। कई तरह की बातें करते दिखे। किसी ने शहर में रहने वाले वृद्ध के परिजनों को सम्पर्क किया। बोले प्रातःकाल से पूर्व पहुंचेगें। किसी ने दया मर कर गमछे से लाश को ढ़क दिया। शव लेकिन अभी भी आँगन में पड़ा। इस इंतजार में था की भीड़ में कोई अपना तो होगा। कोई तो मेरा ऐसा सगा होगा जो मुझे मेरे घर के अंदर तक ले जाये। मानवता के शुष्कता का एक कारण यह भी की बड़े घरवाले हैं साहब कुछ इधर-उधर हो गया तो बड़ी कार्रवाई करा देंगे। रात्रि में पंचों और सरपंच ने शव को कमरे में रखने के लिए छोड़ दिया और घर को बाहर से ताला जड़ दिया गया। सुबह जब तक कोई नहीं आ जाता तब तक का इँतजार करते हैं। कहते सभी ने अपने पैंदे सरका लिए, सुबह घरवाले पहुचें तब जाकर अंतिम संस्कार के कार्य पूर्ण हुए।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़