(अभिव्यक्ति)
संत कबीर दास के दोहे से आलेख का प्राथम्य चाहता हूँ,उन्होंने नें जो मार्गदर्शन एक दोहे के माध्यम से किया है। उसमें निहित जीवन का सार है। वे कहते हैं, ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोये | औरन को शीतल करे, आपहुं शीतल होए ||
सारांश यही है कि हम किसी व्यक्ति विशेष से यदि आदर, प्रेम और सभ्य व्यवाहर की कामना करते हैं। तो उसके बदले हमें भी यही व्यवहार शैली में पहले उनके प्रति प्रासंगिक होना आवश्यक है। उदाहरणतः हम देखते हैं की यदि हम शांत जल में यदि कंकड़ फेकते हैं। तो निश्चय है की जल में भी कम्पन होना स्वाभाविक है। वैसे ही संबंध होते हैं। यदि संबंधों में कटुता, ईर्ष्या, द्वेष, छल, चतुराई और मिथ्या जैसे अशुद्धियों का प्रयोग करते हैं। इसके फलन प्राप्त व्यावहारिक शैली में इसके समानांतर ही परीणाम प्राप्त होंगे। लोग अक्सर अपनी स्थितियों, परिस्थितियों और अपने ईर्दगिर्द के पारिस्थितिकी पर यह अवक्षेपण करते हैं की लोग ठीक नहीं है। जबकी वास्तविकता के संदर्भ में कबीर दास जी कहते हैं, बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय ।
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय ।।
कहने का तात्पर्य है की हम अपने ही अंदर की बुराई को तलाशने के बजाय, लोगों पर दोषारोपण करने में महारत हासिल कर बैठे है। हम यदि अपने व्यवहार में सरलीकरण कर पाते तो संभव है। हमें दुख और वेदनाओं से दो चार होना नहीं पड़ता। प्रेम की पराकाष्ठा पर साध्यता के संदर्भ में कबीर जी कहते हैं, आगि आंचि सहना सुगम, सुगम खडग की धार
नेह निबाहन ऐक रास, महा कठिन ब्यबहार।
तात्पर्य है, अग्नि का ताप और तलवार की धार सहना आसान है।
किंतु प्रेम का निरंतर समान रुप से निर्वाह अत्यंत कठिन कार्य है। प्रेम जो शाश्वत है, प्रेम जो इस प्रकृति में चीर स्थायी है। जिसके कारण ही सृजन हुआ और प्रेम से ही इस भवसागर से मुक्ति संभव है। वर्तमान के भौतिकवादी मानवीय प्रवृत्ति में प्रेम का समान व्यवाहर रखना उतना ही कठीन है। हमारा प्रयास और लक्ष्य होना चाहिए की हमारी वाणी में स्वांस की भांति प्रेम का प्रवाह निरंतर हो। फिर देखिए जीवन का आनंद ही कुछ और होगा। आप रहें, ना रहें परंतु, प्रेम रूपी जो शैली के रूप में जो अमिट स्मृति लोगों के बीच छोड़ जायेंगे। वह अनंत काल तक के लिए आपको जीवंतता देगी। क्योंकि प्रेम,शाश्वत है।
लेखक
पुखराज प्राज