Wednesday, February 2, 2022

प्रेम, वैराग्य और स्वयं से साक्षात्कार : प्राज / love, detachment and self-realization


                           (दर्शन


विभिन्न दर्शनों में प्रचलित प्रसिद्ध अवधारणा है जिसका मोटा अर्थ संसार की उन वस्तुओं एवं कर्मों से विरत होना है जिसमें सामान्य लोग लगे रहते हैं। 'वैराग्य', वि+राग से व्युत्पन्न है, जिसका अर्थ राग से विलग होना है। 
       एक तटस्थ जीवन का आरंभ है वैराग्य कहलाता है। ऐसा नहीं है कि जिसमे वैराग्य भाव जागृत हो गया वह संबंध तोड़ लेता है, वरन यह तो प्रेम की पराकाष्ठा है, उसकी सर्वोच्चता है । आप खजुराहो का मंदिर देखिए, वह समूचा प्रेम मंदिर है। जिसमें इसके सभी चरणों का दृश्यांकन किया गया है, बाहिरि भित्ति पर ‛वासनायुक्त अनुराग', फिर अन्दर ‛प्रेम' आगे स्नेह,और गर्भगृह पर वैराग्य के शिल्प गढ़े गए हैं। 
             योगदर्शन में वैराग्य के 'अपर वैराग्य' और 'पर वैराग्य' दो प्रमुख प्रकार बतलाये गये हैं। जहाँ अपर वैराग्य के चार भेद क्रमशः , जिसमें विषयों को छोड़ने का प्रयत्न तो रहता है, किन्तु छोड़ नहीं पाता यह यतमान वैराग्य है। शब्दादि विषयों में से कुछ का राग तो हट जाये किन्तु कुछ का न हटे तब व्यतिरेकी वैराग्य समझना चाहिए। मन भी एक इन्द्रिय है। जब इन्द्रियों के विषयों का आकर्षण तो न रहे, किन्तु मन में उनका चिन्तन हो तब एकेन्द्रिय वैराग्य होता है। इस अवस्था में प्रतिज्ञा के बल से ही मन और इन्द्रियों का निग्रह होता है। वशीकार वैराग्य होने पर मन और इन्द्रियाँ अपने अधीन हो जाती हैं तथा अनेक प्रकार के चमत्कार भी होने लगते हैं। यहाँ तक तो ‘अपर वैराग्य’ हुआ। आईये अब बात करते हैं,पर वैराग्य- जब गुणों का कोई आकर्षण नहीं रहता, सर्वज्ञता और चमत्कारों से भी वैराग्य होकर स्वरुप में स्थिति रहती है तब ‘पर वैराग्य’ होता है अथवा एकाग्रता से जो सुख होता है उसको भी त्याग देना, गुणातीत हो जाना ही ‘पर वैराग्य’ है।
                प्रेम और वैराग्य में अंतर बहुत ही संकीर्ण है। प्रेम से तटस्थ (ऑब्जेक्टिव) हो जाना ही तो वैराग्य है । प्रेम तो वासना से लगभग मुक्त होता है लेकिन फिर भी मोह व्याप्त तो रहता ही है और जब मोह भी विदा हो जाता है तब वैराग्य का जन्म होता है । जिसमें वैराग्य पैदा हो गया है वह संसार में रहता है किन्तु संसार उसके अंदर निवास नहीं करता है। और यहीं से स्वयं से साक्षात्कार की यात्रा शुरू होती है।


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़