Wednesday, February 2, 2022

संबंधों के बाहर प्रेम की तलाश बनाम भवसागर : प्राज / The search for love outside relationships vs the ocean


                              (दर्शन

संबंधों की परिधि में एक शीशु का होना, उन्हे समझना और अपनाना तो जन्म के साथ एक व्यवहारिक जुड़ाव है। जैसे किसी जंगली जानवर को जन्म के बाद उसके प्रकृति के विपरित परिवेश में रख देने से, उसके स्वभाव में पूर्ण परिवर्तन देख सकते हैं। ठीक वैसे ही मनुष्य, जन्म लेता है, संबंधों के ईर्दगिर्द बढ़ता है और उससे जुड़ने का प्रयास करता है। संबंधों की माधुर्यता यह भी है कि एक परिवार के लोग हर वक्त एक दूसरे के साथ अडिगता से स्तंभित मिलते हैं। परिवारिक परिदृश्य में उत्सव, आनंद, हर्ष, अहम्, नोक झोक सब कुछ संभव है। इन सबके साथ निहित प्रेम भी होता है।
                       हम बात कर रहे हैं परिवारिक प्रेम, संबंध और उनके बीच के बंधन के विषय में, जहाँ परिवार का मुख्य अपने परिवार के संरक्षण को सर्वोपरि मानता है तो परिवार के तरूण अपने विकास और परिवर्तन के लिए परिवारिक परिदृश्य को जिम्मेदार समझता है। चाहे वह परिवर्तन सकरात्मक हो या नकारात्मक, दोनो ही प्रभाव के कारण के रूप में परिवारिक स्थिति, बंधन और सहयोग के मानता है। कभी यह भी होता है कि आर्थिक, क्षेत्रीय, सास्कृतिक, सामाजिक, वैचारिक या विचारधारा के अनुरूप किसी भी एक कारक के चलते व्यक्ति यदि तनिक भिन्नता में अपने आप को पाता है। तो निश्चित है की हल्की दरार को खाई होने में देर नहीं लगता है। जहाँ शनैः-शनैः आपसी संबंधो में द्वेष, बैर, ईष्या और अविश्वास घर करते देर नहीं लगता है। यहाँ से प्रेम के टूटने के क्रमशः सातों सोपान प्रारंभ हो जाते हैं।  परिणामस्वरूप व्यक्ति अपने आपको परिवारिक से भिन्न या परिवार व्यक्ति की अपने समूह से भिन्न मानने लगता है। यह वहीं स्थिति होती है जहाँ व्यक्ति नाव में एक पैर ही रखकर दूसरा पैर, दूसरे नाव में रखने की तैयारी करता है। अर्थात् वह विकल्पों की तलाश करने लग जाता हैं।
                 चूँकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज में रहना चाहता है। ठीक वैसे ही संबंधों के अस्थिर के चलते वह नव संबंधों की तलाश करता है या कहें प्रेम की तलाश करता है। क्योंकि पारिवारिक प्रेम को उष्ण से भाप होने में देर नही होती है। उसी की पूर्ति के लिए प्रेम की अन्यत्र पोषण देखता है। इसे ऐसे समझे की जीवन एक वाहन है और ईंधन उसके चलने का संसाधन यानी प्रेम है। क्योंकि यदि व्यक्ति अपने आप से, अपने परिवेश से, अपने लोगों से, अपने परिदृश्य से प्रेम पाता तो वह या तो आत्महत्या को या पागलपन की ओर अग्रसर होगा। प्रेम वह निधि है जो मनुष्य के स्वभाव से, मनुष्य के लोगों में प्रभाव तक निर्धारित करता है। जबकि होना यह चाहिए की आप स्वयं में शसक्त हैं स्वमेव को इस प्रकार ढ़ालने का प्रयास करें की आप को प्रेम की परिपूर्णता इतनी हो, की सभी आप में प्रेम की तलाश करें। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़