Thursday, February 3, 2022

जनता का, जनता के विरुद्ध, जनता के लिए कैसी क्रांति? : प्राज / What kind of revolution of the people, against the people, for the people?


                             (अभिव्यक्ति)


भारतवर्ष, एक लोकतांत्रिक गणराज्य है। लोकतान्त्रिक गणराज्य सरकार का वह स्वरूप है जो गणतंत्र और लोकतंत्र से अपनाए गए सिद्धांतों पर काम करता है। कई देश जो अपने आधिकारिक नामों में 'लोकतान्त्रिक गणराज्य' शब्द का उपयोग करते हैं। सरकार का एक रूप है जिसमें देश को एक 'सार्वजनिक मामला' माना जाता है, न कि शासकों की निजी संस्था या सम्पत्ति। एक गणराज्य के भीतर सत्ता के प्राथमिक पद विरासत में नहीं मिलते हैं। यह सरकार का एक रूप है जिसके अन्तर्गत राज्य का प्रमुख राजा नहीं होता। गणराज्य की परिभाषा का विशेष रूप से सन्दर्भ सरकार के एक ऐसे रूप से है जिसमें व्यक्ति नागरिक निकाय का प्रतिनिधित्व करते हैं और किसी संविधान के तहत विधि के नियम के अनुसार शक्ति का प्रयोग करते हैं, और जिसमें निर्वाचित राज्य के प्रमुख के साथ शक्तियों का पृथक्करण शामिल होता हैं, व जिस राज्य का सन्दर्भ संवैधानिक गणराज्य या प्रतिनिधि लोकतंत्र से हैं।
            लोकतंत्र, जहाँ जनता ही सर्वोपरि है। जहाँ जनता ही चुनाव करती है की शासन व्यवस्था की चाबी किसे दिया जावे। आपके विचारों तो थोड़ा डाईवर्ट करते हुए आपका ध्यानाकर्षण मैं, तेंदुलकर समिति, वर्ष 2009  के अनुसार, भारत की कुल आबादी के 21.9 % लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन-यापन करते हैं। यह आकड़े वर्ष 2020 के बाद कोविड-19 के चलते और बढ़े है। क्योंकि एक बल्कि मात्रा में लोगों के रोजगार छिने गए हैं। यहां तक की दिहाड़ी मजदूरों को भी अपने घरों में पैर पसारे रहना पड़ा है। जरा सोचिए जो लोग अपने दैनिक जीवन की मूलभूत सुविधाएं पूरी नहीं कर पाते हैं। जो रोजमर्रा की जिंदगी से जंग की तरह लड़कर कुछ खाने की व्यवस्था करते हैं। ये लोग जब मतदान करते हैं। तो ध्येय रहता है, जो सरकार चुनकर आएगी वह गरीबी दूर करेगी। लेकिन सिस्टम में व्यापक रूप से व्याप्त भ्रष्टाचार और तानाशाही की तरह बर्ताव करती ब्यौरोक्रेसी के सामने इनके अरमान दम तोड़ देते हैं।
            इसी बीच ऐसे जगहों पर, बीहड़ों पर, जंगलों के जंगलीराज में मार्क्सवाद के नारा लिए, एक संगठन उनके बीच सांस्कृतिक, व्यावहारिक और सत्ता परिवर्तन की बात को लेकर पहुँचती है। उन्हे तो ये भी नहीं  पता रहता की ये लोग, किस संगठन से है। शासकीय हैं या निजीकरण से हैं। उन्हे लगता है, हमारे बीच आए हमारी सुख-दुख सूनी हमारी मदद के लिए हमारे साथ खड़े हैं। ऐसे ही विचारों के बवंडरों में एक नेतृत्व का जन्म होता है। जिसके लिए लोग, जान देने और लेने दोनो पर उतारू हो जाते हैं। उस समय नेतृत्व के दृष्टिकोण को, समूह अपना दृष्टिकोण समझती है। लोगों में एक जनभावना का उद्गार होता है। वे अपने नेतृत्व के प्रति इतना अंधविश्वासी हो जाते हैं कि नेतृत्व के कथन को कर्म का संविधान मान बैठते हैं। यहां नेतृत्व के मानसिक शोधन या रंजन का कार्य , उसके विचारधारा के मार्गदर्शकों पर निर्भर करता है। जैसे माओवादी संगठनों से जुड़े लोगों में बंदूकों के दम पर परिवर्तन और अपनी मांग को कठोरता से रखनी की भावना है। जो लोगों को बंधक बनाकर, डराकर, मारपीट या लूटपाट करके लक्ष्य साध्य करते हैं। स्वाभाविक है की नेतृत्व के गलत कार्य को भी सहीं समझकर उसके पीछे चलने वाले लोगों की क्या बात करें। जहाँ एक ओर बड़े और रसूखदारों ने उसका शोषण ही किया। उनकी नजरें इनकी बहु-बेटियों में अपने हवस को मिटाने की हसरतें दिखी हो। वो नेतृत्व की भक्ति करना सर्वोपरि ही समझेंगे।
             क्योंकि अदालतों में तारीख-पर-तारीख के दौड़ में न्याय मिलते-मिलते अन्याय ज्यादा लगने लगता है। लेकिन मानवों की प्रकृति है इंस्टेंट रिलीफ पाने की, वो भला सब्र की महत्ता को क्या जाने? लेकिन एक बड़ी विडम्बना यह है कि इन संगठनों के प्रमुखों के लिए तो धन ही सब कुछ है। जब तक हिंसा, डर और आतंक का महौल पसरते रहेगा। तब तक इनकी झोली में धन की वर्ष निश्चित है। ऐसा नहीं है की इनसे केवल डरने वाले ही धन देते हैं। अपितु इनके तार तो बड़े राजनीतिक पहलुओं के बीच लगे रहते हैं। लेकिन जनता का क्या? उन अबोध बच्चों का क्या जो क्रांति के नाम पर, अपने ही लोगों के खून से लाल रंग की होली खेलने पर आमादा है। उनका बेगुनाहों का क्या? जिन्हें इन संघर्षों के बीच अपनी जिंदगी गवाँदी है। उन बेचारों का क्या जिन्हें नैतिकता और व्याहारिकता के गुर पाठशाला में सिखने थे, जो आज भी जंगलों में जीवन-मरण के बीच आँखमिचौली का खेल खेल रहे हैं। इन भटके राहगीरों को कौन मुख्य धारा में लौट जाने को कहेगा? कब,माओवाद की हिंसा खत्म होगी? आखिर क्यों, जनता का, जनता के विरुद्ध, जनता के लिए क्रांति छिड़ी है। यह एक ज्वलंत और विचारणीय प्रश्न है। नहीं तो देश के जवान और देश के युवाओं के बीच संघर्षों के दौर में न जाने कितने शहीद होंगे और कितने मारे जायेंगे। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़