(अभिव्यक्ति)
कार्ल मार्क्स ने तात्कालिक समय में समाज के दो वर्गों पर केन्द्रित सिद्धांत दिया। जिसे हम मार्क्सवाद और इनके विचारों को अनुकरण करने वालों को मार्क्सवादी कहते हैं। मार्क्सवाद में मानव सभ्यता और समाज को हमेशा से दो वर्गों -शोषक और शोषित- में विभाजित मानता है। माना जाता है साधन संपन्न वर्ग ने हमेशा से उत्पादन के संसाधनों पर अपना अधिकार रखने की कोशिश की तथा बुर्जुआ विचारधारा की आड़ में एक वर्ग को लगातार वंचित बनाकर रखा। शोषित वर्ग को इस षडयंत्र का भान होते ही वर्ग संघर्ष की ज़मीन तैयार हो जाती है। वर्गहीन समाज (साम्यवाद) की स्थापना के लिए वर्ग संघर्ष एक अनिवार्य और निवारणात्मक प्रक्रिया है।
कहने का तात्पर्य है कि समाज के दो वर्ग एक वर्ग वह जो पूंजीपतियों का है और दूसरा है मजदूरों का। स्वाभाविक है कि यदि किसी एक वर्ग विशेष में संतुलन या मूलभूत आवश्यक्ताओं की पूर्ति ना हो तो, और यदि काम और कामगारों के तुलना में अधिक मुनाफा यदि स्वामित्व वर्ग ले उड़े तो निश्चित है की संघर्षों का दौर प्रारंभ होगा ही।
भारत में मार्क्सवादी विचारों का प्रवेश बीसवीं सदी के दूसरे दशक में हुआ। हालांकि भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के गठन को लेकर मतभेद रहे हैं। वर्तमान भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अनुसार उसकी स्थापना 1925 में कानपुर में हुई थी और 1964 में उससे अलग हुआ धड़ा जो अब अपने को मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी कहता है और जो वामपंथी मोर्चे का सरगना है, उनके अनुसार भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना ताशकंद में 1920 में हुई थी और उसमें एमएन राय, एल्विन राय (उनकी पत्नी), रोजा फिंटिंगोफ मोहम्मद अली आदि शामिल थे। किंतु ऐतिहासिक तथ्य यह सुझाते हैं कि ताशकंद में गठित पार्टी में मुख्यत: वे लोग शामिल थे जो विदेशों में मार्क्सवाद के प्रभाव में आए और उन्होंने सोवियत संघ की छत्रछाया में वहीं एक कम्युनिस्ट पार्टी गठित कर डाली। ऐसे लोगो का भारत जैसे देश में कोई जनाधार भी नहीं था।
मेरा उद्देश्य मार्क्सवाद के विस्तार की ओर इंगित करना नहीं है। अपितु इन तर्कों के माध्यम से यह बतलाना चाहता हूं कि भारतवर्ष में मार्क्सवाद के विविध विचारात्मक संगठनों का जन्म हुआ। जिसमें कुछ सिस्टम में माओत्से तुंग की विचारधारा से प्रभावित हैं। जो क्रांति केवल बंदूकों के दम पर चाहते हैं। तो कुछ राजनीति के परिवर्तन के साथ शांति का निर्वाह करके। बात करते हैं अर्बन नक्सलवाद की, जो समाज के बीच मौजूद हैं। ये लोग सरकार के खिलाफ नफरत फैलाने की कोशिश में लगे हुए हैं। बता दें कि दक्षिणपंथी दल के नेता अर्बन नक्सलवाद शब्द का इस्तेमाल शहरी इलाकों में छिपे माओवादियों के मददगारों के लिए करते हैं। लेकिन क्या सभी मार्क्सवाद विचारधारा के लोगों को अर्बन नक्सल समझना गलत नहीं है? अर्बन नक्सल को हम ऐसे भी समझ सकते हैं। ये वे लोगों हैं जो आम लोगों की तरह जीवन यापन करते हैं। जो नक्सलवाद के समर्थक हैं। इनकी विचारधारा में मार्क्सवाद के अंश देखे जा सकतें हैं। लेकिन विशेष यह है कि यदि किसी अन्य मार्क्सवाद विचारधारा, जैसे किसान संगठन, मार्क्सवाद विचारधारा के राजनैतिक दल, मार्क्सवाद के तर्क पर सृजन करने वाले साहित्यकार एवं बुद्धिजीवी वर्ग को भी इस शब्द की परिभाषा में जोड़ना उचित नहीं होगा।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़