(सिद्धांतवाद)
क्या आप ऐसे जीवन की कल्पना कर भी सकते हैं? जिसमें केवल आपाधापी और बंजारापन हो। जहाँ नींद से पहले डर आँखों में समाने को आमादा हो। जहाँ हर स्वांस के साथ, जिंदगी के क्षणों को गिनकर जीना पड़े। संभव है ऐसी जीवन की कल्पना तो कोई नहीं करेंगे। चौपाल के ठेले पर कल ही बेरोजगारी के फ्रस्ट्रेशन में चल रहे युवाओं की बात की ओर ध्यानाकर्षण करता हूँ। वे रोजगार और बेरोजगारी के ग्राफ में खूद को रोज़गार की ओर कम, ज्यादा बेरोजगारी की ओर लुढ़कता बता रहे थे। लेकिन, जीवन है तो जीना ही पड़ेगा, और जीना है तो कुछ ना कुछ करना ही पड़ेगा। चाहे बात पकौड़े ही क्यों ना तलने की हो। रोजगार तो यह भी है जनाब। इसी संभावना के साथ वैसे तो, वे मन बहला रहे थे।
ये सारे सैद्धांतिक और प्रायोगिक बातें कहाँ से आई होंगी? सारकरण है उनकी बौद्धिक लब्धता के कारण, इसी परिपेक्ष्य में तनिक विचार करें की, क्रांति के नाम पर, सिस्टम में बदलाव के नाम पर, अपना हक़- एत्थे रख, वाली परम्परा के हत्थे चढ़े किशोर-किशोरियों की मानसिकता क्या होती होगी। जिन्हें केवल इसलिए मोहरा बना दिया गया है क्योंकि थोड़े अपने अधिकारों की अनभिज्ञता है। जहाँ मुख्यधारा की प्रखर लौ से पहले मार्क्सवादी विचारधाराओं के समर्थकों के झूंड पहले पहुच गए। जो उन्हें यह भी बतलाते है कि उँच-नीच का फासला, ब्योरोक्रेसी और डेमोक्रेसी के हुकमरानों की भ्रष्ट नीतियां हैं। हम विरोध करके, बंदूकों की आवाज से सिस्टम को सुधार सकते हैं। ओज और मानसिक धावन से युवा ऐसे संगठनों में जुड़ जाते हैं। कारण एक शोषण भी है जिसकी बारिक परिधि से वे गुजरे रहते हैं।
बहरहाल, ऐसे रंगरूट भर्ती के उपरांत जब अपनों से लड़ते हैं। क्रांति और बदलाव के नाम पर होने वाले खून खराबे को देखते हैं। हृदय पसीजता, आँखों में आँसू और मन में अपने कृत्य के प्रति अजीब घृणा सबकुछ छोड़ने के लिए विवश तो कर देता है। मगर, भटके मार्ग से लौटना इतना आसान थोड़ी है। कई ऐसे उदाहरण भी मिलते हैं जहाँ आत्मसमर्पण को अतुर युवा को किसी सिपाही ने इस लिए गोली मार दी तांकि उसके खाकी में एक सितारा बढ़ जाए। ऐसे उदाहरणों को विचार कर वह डर जाता है। लेकिन जीवन का यह संघर्ष जो, उसने अपनों से, अपनों के बीच, अपनों के लिए चुना है। वह उसे अंततः उसके इहलीला के अंतिम चरण की ओर अग्रसर कर देता है। दोनों ओर से क्षति तो भारतवर्ष की है। युवा तो दोनों है, केवल विचारधाराओं के फर्क ने एक को नक्सल, तो दूसरे को सिपाही बना दिया है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़