Wednesday, February 16, 2022

दहलीज़ के बाहर भी स्वतंत्रता की प्रतीक्षा बनाम विरोध : लेखक प्राज / Waiting for Freedom Beyond the Threshold Vs. Protest


                        (फेमिनिज्म)

लिबाज़ कहने से तात्पर्य है पोशाक या पहनावे से होता है। जो वस्त्र हम धारण करते हैं। सामान्य शब्दों में पहनावा या लिबाज़ की संज्ञा दे सकते हैं। वैसे फिल्म जगत के ऊपर लांछन उड़ेलने से पहले प्राचीन काल के शिल्पकारों पर थोड़ा भड़ास निकालने की प्रयास करने के विषय में सोच सकता हूँ। जो महिलाओं के इतना अधिकार कैसे दे दिये की थोड़े तंग और कमसिन वस्त्र धारण कर शिल्प निर्माण के लिए पोज देती नज़र आ गई या फिर किसी कामुकता से परिपूर्ण शिल्पकारीगर की कल्पना तो नहीं जिसने महिला को अंतरंगता के आँच पर परखने की गलती की हो। वर्तमान दौर में तो हम बराबरी की बात करते हैं जहां नर और नारी एक समान मानते हैं। पृष्ठभूमि चाहे राजनीति, सामाजिक, आर्थिक हो, पर धार्मिक मसलों में थोड़ा कमतर रखने का प्रयास किया जाता रहा है। जहाँ एक ओर पुरुषों के अर्द्ध नग्नता पर सवाल खड़े होने के बजाय सिटी से सौगात परोस दिये जाते हैं। वहीं सीमाओं के साथ समीक्षा महिलाओं के मत्थे मड़ दिये जाते हैं। धर्म के साथ जुड़ी मान्यताओं के साथ ठीक ऐसा ही है कि धर्म हमें स्वतंत्रता नहीं देता। धार्मिक व्यक्ति धर्म और ईश्वर की बंद कोठरी को त्यागना नहीं चाहता। वो उस बंद कोठरी में खुद को सुखी महसूस करता है। धर्म और इससे जुड़ी स्थापनाएं महिलाओं के लिए हर कदम पर दिक्कतें पेश करती रही हैं। वो चाहते हैं कि महिलाएं उसी बने बनाएं खोल में दबी-सिमटी रहें जो और जैसा धार्मिक किताबों में दर्ज है। यह हकीकत है कि कोई भी धर्म स्त्री को स्वतंत्र रहने की इज्जत नहीं देता। धर्म का यह अड़ियल रूख धीरे-धीरे कर हमारे मस्तिष्कों में घर करता गया और हमने महिलाओं के लिए ड्रेस कोड जैसी दीवारें खड़ी कर दीं। हमें ऐसा लगता है कि स्त्री वहीं ज्यादा सुरक्षित है। जहां पहनावे की जिद्द या आधुनिकता नहीं है। महिलाओं के पहनावे पर हम अक्सर ही उद्दंड हो जाया करते हैं। प्रायः हमारी यह उद्दंडता इस कदर बढ़ जाती है कि हमें इंसानियत को लांघ में भी कोई शर्म महसूस नहीं होती। यहां सवाल उठता है कि महिलाओं के पहनावे को धर्म का वास्ता देकर उन्हें क्यों रोका या प्रताड़ित किया जाता है? शायद हम महिलाओं के खुले पहनावे से भय खाते हैं। साथ ही यह दुहाई भी दी जाती है कि महिलाएं अपने पहनावे में सामाजिक शिष्ठताएं न भूलाएं। क्या हर सामाजिक शिष्ठता का ठेका सिर्फ महिलाओं ने ही ले रखा है? मैं अभी तक इस बात को नहीं समझ सका हूं कि सिर्फ महिलाओं के पहनावे से ही क्यों सामाजिक शिष्ठताएं तार-तार होती हैं? क्या सामाजिक शिष्ठता में हम पुरुषों की कहीं कोई भागीदारी नहीं होती? पुरुष का नंगा रहना या टहलना कभी किसी धर्म या धार्मिक किताबों को भद्दा क्यों नहीं लगता? इस ओर तनिक विचार करना भी आवश्यक है।
                 बहरहाल, वर्तमान दौर में पहनावे पर एक बहस देश में छिड़ी है। जहाँ कुछ लोग इसलिए विरोध कर रहे हैं। क्योंकि विरोध करना तो जैसे प्राथमिक सीढ़ी हो पब्लिसिटी के तरक्की की। लिबाज़ की वैसे तो कोई धर्म नहीं होता है। ना कभी जुलाहे उसे धर्म की शिक्षा दी। हां लेकिन यह तो तय है कि धर्म के नुमाइंदों ने अपने-अपने हिसाब से लिबाज़ के दायरे बढ़ा दिये। खासकर महिलाओं के लिए तो कट्टरता की कड़ी पहरे में कमिटमेंट भी कर दिये। जहाँ महिलाओं से इस संबंध में प्रश्न की बात रही, तो जैसे शुन्यवाद या उदासिनता की भेट पर छोड़ कर सारे फैसले पुरुष प्रधान मानसिकता के धनि लोगों ने कर लिया। मेरा विरोध तब भी नहीं था और ना अब भी है। लेकिन कुछ ऐसे संस्थान जहाँ सर्वजन का समावेशन हो। जहाँ सबको समानता के साथ, नियमों का पालन करना होता है। कम से कम वहां तो धार्मिकता के ओले बरसाना कहाँ तक सार्थक है। यह एक प्रश्न है, उन लोगों के लिए जो महिलाओं को निम्न समझने की भूल कर बैठते हैं। आखिर विवाद किस बात का है, सारकरण तो जैसे शून्य ही हो। हमें अपग्रेडेड होना भी आवश्यक है। विचार अवश्य करें। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़