Wednesday, February 16, 2022

क्रांति या आतंक? : लेखक प्राज / Revolution or Terror?


                         (विचार)


सन् 1970 के समय में कानु सान्याल और चारू मजुमदार ने जिन परिस्थितियों में नक्सलबाड़ी के शस्त्र आंदोलन के उद्देश्य और प्रायिकता वर्तमान में व्यापक हो चुके नक्सल हिंसा से पृथक ही रहा है। जहाँ पहले नक्सलबाड़ी की क्रांति के दौर में किसान और पूंजीपतियों के बीच का संघर्ष कह सकते हैं। उस समय नक्सलबाड़ी के जो आंदोलन में भाग लिए उनका एक सिद्धांत था साम्यवादी विचारधारा, जिसमें यदि उत्पादक वर्ग उत्पादन करता है तो लाभांश भी उत्पादन करने वाले वर्गों में समानता से वितरित हो। संगठन ने गति पकड़ी अलग-अलग विचार के लोगों ने संगठन को मजबूती देने के लिए या फिर अपने मनोरथ के अनुरूप आंदोलन का मूह मोड़ दिया। वहीं विचारधाराओं के टकराव ने नक्सली संगठन के दो फाड़ कर दिये। जिसमें हिंसक और विध्वंस को जन्म देने वाली संगठन के रूप में जनताना सरकार के प्रतिनिधि के रूप में खूद का वर्चस्व पालने वाले नक्सलियों की संगठन शस्त्र और क्रांति के प्रचार बन गए। वहीं दूसरी ऐसे लोग भी रहे जो, 70 के कृषक आंदोलनों के बाद लेफ्ट विचारों के होकर राजनीति दल के रूप में कार्य करने लगे। बहरहाल सबसे भयानक स्वरूप उन नक्सलियों का रहा जिन्होंने हिंसा का रहा चुना। जिनके डर से वनांचल की भूमि अभी भी कांप उठती है। 
               आदिवासी लोग यह मानते हैं कि यदि नक्सलवादी सुरक्षा बलों को मार सकते हैं तो फिर हमारा क्या होगा। इसलिए वे जाने-अनजाने नक्सलवादियों के आदेशों को मानने लगते हैं। इससे नक्सलवादी गुट हमले करने के लिए प्रोत्साहित होते हैं। सबसे ज्यादा प्रभावित आदिवासी हैं। छत्तीसगढ़ का बस्तर जिला नक्सलवादियों का गढ़ रहा है। यह देश के निर्धनतम जिलों में से एक है जहां पर बुनियादी सुविधाएं नहीं हैं, सड़क नहीं है, चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं, आय का कोई स्रोत नहीं है और विकास शब्द का उपयोग नेताओं द्वारा केवल चुनाव के समय किया जाता है किन्तु साथ ही आदिवासियों की गरीबी के अलावा नक्सलवादी अपने षड्यंत्र को बड़ी कुशलता से आगे बढ़ा रहे हैं। 2005 में राज्य द्वारा नक्सलवादी कार्रवाई तथा सलवा जुडूम से पहले नक्सलवादी विकास कार्यों में बाधा डालकर लोगों में भय पैदा कर रहे थे।
        इससे स्पष्ट होता है कि सामाजिक आंदोलन की आड़ में माओवादी और नक्सलवादी राजनीतिक सत्ता हड़पने का षड्यंत्र कर रहे हैं। वहीं पशुपति से लेकर तिरूपति तक क्रमशः घटनाओं के क्रम एवं इनकी कार्यशैली से प्रशासन के कहीं ज्यादा, आम लोगों को क्षति हुई है। वहीं शासकीय सम्पदा भी तो आम लोगों के टैक्स, कराधान, एवं सेवाओं के कर के आय से निर्धारित होती है।कहने का तात्पर्य है। वे जनता के लिए लड़ने की बात कहकर, जनता के साथ ही लड़ बैठे हैं। वहीं आंदोलन के नाम पर थोड़े बलिष्ठ या धनि व्यक्ति से उगाही, संरक्षण के नाम पर हफ्ता परम्परा, निर्माण के प्रोटेक्शन के लिए सुरक्षा निधि के रूप में अवैध वसूली कहां तक जायज है। यह आंदोलन से कहीं ज्यादा अपनी मौजूदगी के धमक से आतंक फैलाने की नीति से कम तो प्रतित नहीं है। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़