Wednesday, February 16, 2022

जनताना सरकार की सिकुड़ती अघोषित सरहदें : लेखक प्राज / Shrinking undeclared borders of Janatana government


                       (अभिव्यक्ति

'जनताना सरकार', यानी 'जनता की सरकार' जिसे माओवादी अपने शासन के मॉडल के रूप में पेश करते हैं। ये सरहद हिंदुस्तान और चीन की सरहद से भी ज़्यादा संवेदनशील मानी जाती है। अंतरराष्ट्रीय सरहदों पर तो दोनों तरफ के अधिकारी मिलते-जुलते भी हैं, मगर इस 'सरहद' पर तल्ख़ी ही तल्ख़ी हैं। कहने का तात्पर्य है की कुछ ऐसे क्षेत्र भी हैं जहाँ शासन-प्रशासन की कानूनी हदें कमजोर पड़ जाती हैं। जहाँ से माओवादी संगठन का बोलबाला होता है। हम इसे सरहद क्यों कह रहे हैं? क्या प्रासंगिकता है कि उस क्षेत्र विशेष को जनताना शासन की संज्ञा देने पर आमादा हैं। इसे समझने का प्रयास करते हैं, जैसे की सीमाओं में इस पार से उस पार जाने के लिए एक निश्चित पाबंदी और रियायतें होती है। लेकिन इन अघोषित सरहदों के पार यदि कोई ग्रामीण जाने की सोचता है, तो नक्सली उसे मुखबिर समझते हैं। वहीं उस हद से पार कर वापस आते भी जाते हैं तो सैन्य बल उन लोगों को माओ समर्थक मानने से गुरेज नहीं करते हैं। कहने का तात्पर्य है बीच में फश जाते हैं ग्रामीण। जिनके सामने एक तरफ कुआ तो दूसरी ओर खाई की स्थिति निर्मित हो जाती है। जहाँ जान जाने का सौ फीसदी यकिन दोनो तरफ से होने लगता है। लाल क्रांति के डर से वे, गांव से बाहर की सीमा लांघने की हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। सैन्य बलों की कार्रवाई के दौरान भी इन्ही लोगों के आड़ में वास्तविक नक्सल मौका-ए-वारदात से आँख मिचौली कर निकल जाते हैं। कई हिंसक झड़प में बेगुनाह ग्रामीणों की जान तो जैसे चने के साथ घून पीस जाने की परम्परा की भाती झड़प की आहूति में बलि चढ़ जाते हैं।
         बहरहाल, सैन्य बलों की नित्य कार्रवाई और विकास वन्यजीवन में प्रवेश से बदलाव की बयार तो चल निकली है। छूट-पुट मामलों के अलावा शनैः-शनैः ही सही लेकिन वास्तविक सरकारी हदें आरोही क्रम में चल रहीं है। विश्वास है की जल्द ही नक्सल अंदोलनों के पीछे चल रहे, भटके लोगों को मुख्यधारा की डगर पर लाने के प्रयास सफलता की ओर बढ़ेंगे। देशहित में उनका भी योगदान रहवासियों की भांति होगी, ना की क्रांतिकारी बनकर अवरोधक बनने की ओर। वर्तमान दौर में जहाँ नक्सल संगठनों से जुड़े युवा भी समझ रहे हैं कि उनकी क्रांति अपने से, अपनें को लिए और अपनों की खिलाफ हो रहा है। वे समझने लगे हैं कि संविधान सबके लिए बराबर है। शिक्षा, शांति और एकता से बड़ी से बड़ी चुनौतियों से पार पाया जा सकता है। लेकिन गिरते नक्सल हिंसा के मामलों के बीच, इन्हे उकसाने या फिर गुप्त सहयोगियों की मनसा न जाने किस ओर है। फिर कभी हिंसा भड़की और हदें फिर बढ़ने को आमादा हो, तो जाने फिर भावी कल कैसा हो। जहाँ एक ही मां के दो लाल आपस में भीड़ गए हैं। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़