(अभिव्यक्ति)
नक्सलवाद और मुख्यधारा के बीच तनातनी की स्थिति तो है। लेकिन इससे भी खतरनाक विषय की ओर आपका ध्यानाकर्षण करना चाहता हूं, कहने का तात्पर्य है कि एक ओर जहाँ नक्सल विचारधारा के लोग, वहीं मुख्यधारा की ओर इन्हे वापसी कराने के लिए आमादा सैन्य बलों के कार्रवाई के बीच एक ऐसा वर्ग भी है। जो ना तो नक्सली समर्थक हैं और ना ही मुख्यधारा के बीच कोई संधि रखते हैं। बल्कि ये ऐसे लोगों का वर्ग है जो हिंसा तो करते हैं और मत्थे मड़ देते हैं नक्सलियों के, अर्थात् नक्सलियों के नाम पर नरसंहार कर छुप जाने वालों की समाज में अवस्थिति छद्म नक्सलवाद है।
एक तर्क से समझने का प्रयास करते हैं कि किसी हिंसा को नक्सल हिंसा का नाम देकर, अपराध को छुपाने का प्रयास किया जाता है। जिसका उद्देश्य ना तो, माओवाद समर्थकों के द्वारा होता है। ऐसी हिंसा के पीछे संगठनात्मक इच्छा शक्ति ना होकर निजी विवादों का होना परिलक्षित होता है। हिंसा, जो निजी स्वार्थ के लिए किया जाता है। जिसकी प्रासंगिकता केवल इतना है की नक्सल हिंसा करार देकर अपने आप को छिपाना हैं।
कई ऐसे मामलें हैं जिनमें अपराधी स्वच्छ वातावरण में निर्भयता से घुमते रहे हैं। वहीं नक्सल मामलों की छानबिन में जहाँ पुलिस एवं प्रशासन केवल कार्रवाई की बात कहकर फाईल बंद करने में इतना तेजी दिखाते हैं की जांच की धरातल पर पहुँचने से पूर्व हीं मामला ठंडे बस्ते में चला जाता है।
एबीपी न्यूज़ में पूर्व माह के 10 जनवरी की रिपोर्ट इसी क्षेत्र में इशारा करती है। छत्तीसगढ़ के कांकेर जिले में फर्जी नक्सलियों को पकड़कर ग्रामीणों ने उनकी जमकर धुनाई कर दी और सोमवार सुबह पुलिस को सौंप दिया, दरअसल 5 लोग खुद को नक्सली बताकर एक घर में डकैती करने घुसे हुए थे, और पैसों की मांग कर रहे थे, लेकिन घरवालों की चालाकी से फर्जी नक्सलियों का भंडा फुट गया, और उसके बाद परिवार वालों ने शोरगुल कर आसपास के ग्रामीणों को बुलाया, जिसके बाद ग्रामीणों ने फर्जी नक्सलियों की जमकर धुनाई कर दी। हालांकि इस दौरान 5 में से 2 आरोपी भाग निकलने में कामयाब हो गए। लेकिन अन्य 3 लोगों की ग्रामीणों ने धुनाई कर पुलिस को सौंप दिया।
ऐसे ही छद्म हत्याएँ भी जंगल के विराने में दफ्न हो जाती है। जहाँ सिर्फ मुख्यधारा के प्रतिनिधि एवं माओवाद के नाम पर कई जायज कार्रवाईयों के बीच कुछ छोटे, बड़े घटनाओं के अंजाम दे दिया जाता है। अलग स्वरूप में अपराधों के अंजाम देने के तकनीक के रूप में प्रायोजित हो चला है। बहरहाल, बदलाव जाने कब आए। निष्पक्षता और वास्तविकता की खोह तलाशने वालों सिर पर कफन बांध कर चलने वालों की देश में कमी थोड़ी है।
लेखक
पुखराज प्राज