( चिंतन )
ऐसा नहीं है की मैं विरोध नहीं करना चाहता, मगर मेरा मन अभी नहीं है। ऐसे विचारधाराओं के लोगों का भी एक वर्ग है। ये लोग हैं जिनका खुद कोई विशेष पक्ष नहीं होता है। न तो पक्ष की ओर दावेदारी पक्की कर पाते हैं और ना ही विपक्ष की ओर। खैर, हम बात नगरीकरण के युवाओं की नहीं अपितु, उन वन्य जीवन के अंतर्गत रहने वालों की बात कर रहे हैं। जो ऐसा भी नहीं है की शासकीय योजनाओं से खुश या नाखुश हैं। बल्कि ये लोग तो ऐसे भी हैं जो माओत्से की विचारधारा को पसंद करते हैं। ये लोग मार्क्सवादी होने की बात तो सोचते हैं, लेकिन दिल से माओत्से के विचारों से कदमताल करते हैं। वहीं माओत्से की विचारधारा के फलन जो संगठन हिंसा में विश्वास रखते हैं। उनके हिमायती भी बनने में कोई कसर नहीं छोड़ते। कई किशोर तो ऐसे भी होते हैं। जो शास्त्र के लोभ में संगठन से जुड़ने की इच्छा रखते हैं। ये अपराधी तो नहीं है, लेकिन अपराध करने की पूरी मनशां रखते हैं।
स्वाभाविक भी है कि अशिक्षा और कुछ कार्मिकों के दुर्व्यवहार से परेशान युवा, किशोरों को शस्त्र उठाने की ओर प्रेरित होते देर कहाँ लगता है। ऐसे तथाकथित आंदोलनकारी लोगों की प्रसंशा एवं उनके कार्य के प्रति सहानुभूति की भावना से ग्रसित ये लोग काफी सॉफ्ट टार्गेट होते हैं। जिन्हें संगठन में जोड़ना कोई बड़ा कार्य नही होता है। वहीं ऐसे लोगों की बेसिक शिक्षा भी उतना अच्छा नहीं हो पाता जिससे की सही गलत में फर्क कर पाये।
बहरहाल, बात यह भी है कि एक ओर जहाँ, प्रशासनिक व्यवस्था की नौकरशाही तंत्र की कठोरता एवं उस तंत्र में बैठे उपर से नीचे तक लोगों में कही ना कहीं भ्रष्टाचार के छोटे-बड़े स्वरूप में अवस्थिति निश्चित होती है। जिनके बारे में या तथाकथित अफवाहों के माध्यम से इन्ही तथ्यों को तर्क के साथ आम लोगों के बीच परोसने की काम माओ समर्थक करते हैं। जिससे लोगों में रोष उत्पन्न होता है। और ऐसे संगठनों में युवाओं की भर्ती क्रमशः हो रहे हैं।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़