(अभिव्यक्ति)
किसी भी उद्देश्यिका के लिए राजनीतिक आंदोलन, जो लोगों के जीवन में बदलाव लाने का दावा करता है। उसका लोकतांत्रिक होना बहुत आवश्यक है। बंदूकें केवल विनाश को जन्म देते हैं। वैश्विक पटल हो या आंतरिक मामले दोनों परिपेक्ष में लोकतान्त्रिक विचारधाराओं ने शांति स्थापित किया है। वर्तमान में पूनः भारतवर्ष में माओवादी संगठनों के द्वारा रेडकॉरिडोर में सरगर्मी तेज कर दी गई है। कई स्थानों पर हिंसक झड़प, मुठभेड़, आगजनी और हमले हो रहे हैं। माओवादी संगठन की उद्देश्यिका है वर्तमान सत्ता/शासन को उखाड़ फेकने की। लेकिन वे भूल रहे हैं की वह शासन प्रणाली जनता ने ही बनाई है। इस परिदृश्य में माओवादियों का विद्रोह जनता बनाम जनता का हो गया है। कहने का तात्पर्य है की वे ऐसे युद्ध को लड़ रहे हैं। जहाँ जनता के लिए लक्ष्य रखकर बदलाव लाने की बात पर, जनता से ही लड़ बैठे है। जिसमें दोनो ओर से जनता को नुकसान हो रहा है। चाहे वह हानि जन, धन या विकास के स्वरूप में हो। इससे राष्ट्र को क्षति होती है। बहके, और राह से भटके लोगों में जहाँ जनता के जनताना शासन की व्यवस्था के लिए लड़ रहे ये माओवाद समर्थक ये भूल जाते हैं कि जिन सुरक्षा बलों से लड़ रहे हैं। वे भी तो जनता के पूत है। उन सैनिकों के परिवार का वर्ग सामान्य लोगों से बना है। जो मजदूर, किसान, शिक्षा, व्यवसायी और आम लोग हैं।
जिस सार्वजनिक सम्पति को माओवादी नष्ट कर रहे हैं या करते हैं। वह भी तो आम आदमी के गाढ़ी कमाई के कर के स्वरूप में दिये धन से बने है। जनता की लड़ाई में, जनता को निशाना बनाना कहाँ तक सही है, इस बात पर उन्हें जरूर विचार करना चाहिए। इन संगठनों के आला कमानों को यह भी विचार करना चाहिए की जिन युवाओं के हाथ में क्रांति के नाम पर हथियार देकर काल के मुह का ग्रास बनाने रहे हैं। उन्हे क्या जरा भी त्रास नहीं होता होगा की उनके साथ क्या होने वाला है? और मानसिक रूप से अवरुद्ध होकर ये युवा न जाने भावी समय में कितने बढ़े अपराध को अंजाम दे सकते हैं।
आज भी शोषण, भ्रष्टाचार, उपेक्षा है। लेकिन सामाजिक दायरे में रहकर भी इन सभी से लड़ा जा सकता है। इन सभी से छुटकारे के लिए तमंचों और बारूद की आवश्यकता नहीं है। हिंसा की आवश्यकता नहीं है। क्या यह भी कोई पुष्टीकरण कर सकता है कि ऐसे दलों में जो राष्ट्र विरोधी हो, जो हिंसा के मार्ग से आजादी चाहे, क्या उस दल में शोषण, भ्रष्टाचार और राजनीतिकरण नहीं है। कई ऐसे मामलें भी सामने माओ संगठनों के सामने आए हैं जो इंसानियत को भी शर्मशार कर दें। फिर ऐसी क्रांति का क्या वास्ता जो, कमिशन और कट के बदले हिस्सेदारी मांगने वालों ठेकेदारो की हाथों की कठपुतली बन जाये। ऐसी क्रांति की क्या उपयोगिता जो जनता से छिन कर,जनता के लिए लिया गया हो। माओवादी विचारधारा के लोगों को एक बार अवश्य ही इन सभी बातों पर विचार करना चाहिए।
लेखक
पुखराज प्राज
छ्त्तीसगढ़