(विचार)
तेरहवी शताब्दी का वह दौर सन् 1294 में बारूद का अविष्कार लोगों के लिए एक अद्वितीय खोज रहा। इस अविष्कार से नया परिवर्तन होने के आसार तो साफ दिख रहे थे। उस समय लोगों ने इस खोज को और तेजी से विकसित करने का प्रयास और खोज की जिज्ञासा ही रही होगी जिसके चलते ही 14वीं सदी तक आते आते, तत्कालीन लोगों ने तोप का अविष्कार कर लिया। तोप की बनावट को छोटा करते-करते 15वीं सदी में बंदूक का अविष्कार हो गया। लोगों को लगा की सुरक्षा के लिए यह अविष्कार बहुत ही सहायक होगा।
उन्हे क्या पता था कि आगे चलकर, इन्ही बंदूकों के नलियों के सहारे आजादी, क्रांति, बदलाव की खोज के साथ-साथ आतंक का एक अलग ही रूप पनपने लगेगा। रशिया के खोजी प्रवृति के धनि अभियांता/अविष्कारक मिखाइल कलाश्निकोव ने एके-47 के अविष्कार के दौरान कभी ये नहीं सोचा होगा की, ये बंदूक किसी गलत व्यक्ति के हाथ में चढ़ जाये तो, गोली कभी भला-बुरा, जाति-धर्म या रंग पूछकर नहीं चलती है। गोली जिसका काम सिर्फ इतना की आदेश मिले तो चलें। उसके पश्चात् तो मार्ग चाहे खाली हो या किसी व्यक्ति विशेष का कपाल ही क्यों ना हो। क्या तो इतना ही है की लक्ष्य भेदन करना है।
वैसे बंदूक के दम पर तो कई लड़ाईयां लड़ी गई, और लड़ी भी जा रही हैं। पक्ष-विपक्ष के लड़ाई में ना गोली का मोल देखा जाता है और ना जान की कीमत। संभवतः मुठभेड़ की शक्ल में यमदूत केवल प्राण हरने के प्रबंधन में पारंपरिक कार्रवाई का निर्वाहक की भूमिका में रहते हैं। वे नहीं देखते होगें की नक्सली, अातंकी, विद्रोह, क्रांतिकारी या सैनिक मर रहा है, बल्कि वे इंसान और इंसानियत को मरते देखते होगें। राह से भटके, राह पर चलते या फिर दोनो अपने-अपने चुने राह को सही बताते संघर्ष को जन्म देते हैं।
अकबर इलाहाबादी ने भी खूब कहा है, 'खींचो न कमानों को, न तलवार निकालो। जब तोप मुकाबिल हो, तो अखबार निकालो।' लोकतंत्र के इस दौर में लोकतंत्र पर भरोसा रखना आवश्यक है। राह से भटके हों या राह में चलते लोग यदि कोई उन्माद हो, वेदना हो, तो लोकतंत्र है। आस्था लोकतंत्र पर रखें। अपनी बात निष्पक्षता और निडरता से लोगों के बीच रखें। बंदूक और बारूद के गंध में जमी को जलाने से कहीं ज्यादा अच्छा है शिक्षा के चराग़ से सुनहरे कल को रौशनी दें।
लेखक
पुखराज प्राज