(व्यंग्य)
कल की बात है अपन तो अपनी मस्ती में चुर शहर के थोड़े सुनसान इलाके से गुजर रहे थे। भाई कहने के लिए ही सुनसान था, लोगों की भीड़ देखकर निमान से अपन हैरान थे। मोटर हो या मोटरसाइकिल प्रत्येक दस गज के फासले में एक-एक वाहन खड़े थे। उसके उपर तसरीफ टिकाए युवा पीढ़ी के होनहार काया का भार संभाले वाहन के स्टैंड जमीन पर गड़े थे। प्यार, मोहब्बत,कसमें- वादे और उससे भी भयानक कामदेव की कामनाएं लिए साक्षात युगल आपस में भीड़े थे।
शायद शर्मिंदगी भी शर्म से पानी-पानी हो जाये इस भांति आलिंगन किये, होटो को टकराने की मुद्रा का पूनर्राभ्यास में लगे थे। आज तो जैसे खजुराहो की प्रतिरूपण हमने इस विराने में दिग्दर्शन करने को आपेक्षिक राह पर चल पड़े थे। कसम से लज्जा भी लज्जित होकर झाडियों में छिपी पड़ी थी। गौर से देखा तो झाड़ियाँ भी हिल पड़ी थी। गौरान्वित होगें वे प्रेमी युगल जिनके कब्जे में यह क्षेत्र पड़ी थी।
बहरहाल, प्रेम के इस रौनक भरी क्षेत्र की आभा है जो संध्या बेला में बेतरतीब भीड़ बढ़ी थी। जहाँ भीड़ कम होना चाहिए। उसके उलट भीड़ बेतहाशा बढ़ने लगी थी। ऐसा ही दृष्टि मुझे याद आया, जब अपन एक स्वच्छता अभियान के नेतृत्व में एक दार्शनिक स्थल पर पहुचे थे। सभी मेरे ही छात्र थे, जो स्वयंसेवक के रूप में सेवा देने उस परिसर पर पहुँचें थे। हम तो अपने काम में मस्त थे। सभी स्वयंसेवक व्यस्त थे। तभी एक मोटरसाइकिल में सवार प्रेमी युगल दार्शनिक स्थल में पहुँचें। भीड़ देखी, भीड़ में अवलोकन में केवल स्वयंसेवकों का पाया, फिर क्या था? मोटरसाइकिल चालु किया और सरपट पैर वापस ले भागे। ऐसे ही पुनर्रावृति के दौर हमने दस देखे। समझ आया की हमने इन प्रेम के युगलों के मार्ग में रोड़े बन खड़े थे। उन्हे चाहिए थी थोड़ी प्राइवेसी और हम तो स्वच्छता के गीत गुनगुना रहे थे। उनके आनंद के मार्ग में अवरोध पर अवरोध बनाते जा रहे थे। उसी क्षण मैनें देखा, वास्तविक प्रेमी जो बादलों के बीच से पृथ्वी की ओर झांकते बोल रहे थे। यार हमने प्रेम की परिभाषा तो कुछ और देकर ही मर गए। समझा इन्हें कुछ और, और कर कुछ और गए। जाने हम भी किन प्रतिमानों की अभिलाषा में प्रेम में अमर हो गए।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़