(निर्दशन)
यथार्थ एवं परिपक्व प्रेम वह होता है, जो कि अपने प्रिय के साथ हर दुःख-सुख, धूप-छाँव, पीड़ा आदि में हर कदम सदैव साथ रहता है और अहसास कराता है कि, मैं हर हाल में तुम्हारे साथ, तुम्हारे लिए हूँ। प्रेम को देखने-परखने के सबके नजरिए अलग हो सकते हैं, किंतु प्रेम केवल प्रेम ही है और प्रेम ही रहेगा क्योंकि अभिव्यक्ति का संपूर्ण कोष रिक्त हो जाने के बावजूद और अहसासों की पूर्णता पर पहुँचने के बाद भी प्रेम केवल प्रेम रहता है।
मनन में कुछ विरोधाभास के स्वर भी उभरते हैं। वर्तमान परिदृश्य को सोदाहरण रखने का प्रयत्न करते हैं। जहाँ यदि किसी से व्यक्ति विशेष प्रेम करता है। चूँकि उसकी अभिव्यक्त करने की भावना को हम आडम्बर कह भी सकते हैं। जैसे दोनो चरों को बोध तो हो गया है कि प्रेम में है लेकिन यदि कहने के प्रयास से विफल रहते हैं। तो क्या यह संभव है कि प्रेम की भावना का अंत:करण में ही स्वयेव खुदखुशी नहीं होगी? या फिर उस प्रेम का प्रदर्शन यदि करने का प्रयास कर भी दिया जाता है। इस मार्ग में सबसे बड़ा सिरदर्द तो जातिवाद, अर्थवाद, धर्मवाद, क्षेत्रीयता, भाषावाद, संस्कृति या अन्य कोई कारक अवरोध उत्पन्न करता है। जहाँ स्वभाविक है प्रेम अंततः परिवारवाद के कटघरे में दोषी ही साबित होता प्रतित है।
किसी व्यक्ति विशेष से प्रेम पर परिचर्चा के दौरान मैनें यूँही कहा था कि, 'असफल प्रेम तो इतिहास लिखता है। बजाय कि सफल प्रेम तो शाम को सब्जी भाजी के जुगाड़ में दम तोड़ देता है।' हम बात कर रहे हैं प्रेम की और प्रेम की सफलता के विषय में। सफल प्रेम किसी कहें या सफल प्रेम की संज्ञा क्या हो? इसके विन्यास की तैयारी करते हैं, सफल प्रेम जो नितांत है, जो अमरत्व बोध है। जहाँ प्रेम निश्छल और निष्काम भावना से ओतप्रोत है। जहाँ आत्मिक संबंध प्रधान है और शारिरीक संबंध को गौण की माना जाता है। लेकिन प्रायोगिक रूप में किस प्रेम को सफल कहेंगे यह भी तो एक बड़ा प्रश्न हैं? उदाहरणतः किसी से प्रेम संबंध होना, दोनो पक्षों के आपसी सामंजस्यता पर निर्भर करता है। यदि दोनो आपसी सामंजस्य से साथ रहते हैं। और सुख-दुख दोनो स्थितियों में यदि अभिव्यक्ति में वही मिठास और वहीं मोह जो एक दूसरे को खोने के डर से एक अदृश्य बंधन स्थापित करे संभवतः उसे प्रेम कह सकते हैं।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़