(दर्शन)
प्रकृति के सौन्दर्य और प्रेम के विषय में चिंतन का प्राथम्यता तो मेरे अनुभवों से बिलकुल नया और वृहद हैं। प्रकृति के संसर्जन से लेकर प्रकृति के परिवर्तन तक हर कही प्रेम का बोध होता है। प्रकृति जो अपने में निवासित जीवों और उनके जीवन को शांति के साथ प्रेम बोध कराते ही रहती है। प्रश्न उठता है की प्रेम की भाषा और परिभाषा की सुनिश्चितता संभव है। संभव भी है और तर्कपूर्ण उत्तर भी है, प्रेम जो भाषा के विकास से पूर्व भी था, प्रेम जो अबोलेपन में भी लगाव देता है। क्या वह प्रेम नहीं है, जब आपकी एक हल्की पुकार से जानवर भी तत्काल आपके समीप पहुच जाता है। प्रेम क्या वह नहीं है, जो प्रकृति हमें नित सिखलाती है। जो प्रेम त्याग का नाम है। यह तो हमें गर्व करना चाहिए जिस प्रकृति के हम अटूट हिस्सा है। वहीं प्रकृति हमें हमारे पंच महाभूतों के आधारभूत श्रोतों से हमें जीवन देती है। हमारा शरीर जो अग्नि, वायु, आकाश, पृथ्वी और पानी का मिश्रण है। जिनके सहचर्यता से हमारा जीवन चल रहा है।ऐसा भी नही है की केवल शरीर के निर्माण में इन पंच महाभूतों की उपयोगिता है। बल्की शरीर की संरचना को सजीविता प्रदान करने में भी इनके स्त्रोतों की नितांत आवश्यकता है।
जैसे भोजन के रूप में अन्न का भक्षण करते हैं। जो हमें भूमि से प्राप्त होती है। प्राणवायु स्वरूप जो आक्सीजन का हम नित्य ग्रहण करते हैं। वह पेड़ों से प्राप्त होती है। अन्न को पकाने के लिए ज्वाला का प्रयोग अग्नि की उपयोगिता दर्शाती है। जीवन को रक्षक सुर्य के ताप में भी अग्नि समाहित है। शारीरिक तापक्रम को संतुलन में रखने के लिए पानी सदैव आवश्यक है। उसी प्रकार से आकाश के सौजन्य से मौसम की परिवर्तनशीलता बनी रहती है। यह जितने भी उदाहरण आप देख रहे हैं। सभी संसाधनों का एक मात्र स्त्रोत है वह है प्रकृति।
प्रकृति जो अपने में समाहित प्रत्येक जीव से प्रेम करती है। चाहे वह जीवित हो, मृत हो, या जैविक/अजैविक घटक हो। वह समस्त निकाय को अपना और अपने आप में समस्त निकाय को देखती हैं। प्रकृति तो अमर स्वरों में देखें तो परिवर्तन तो निश्चय और निमित्त है। जो शनैः-शनैः परिवर्तित होती रहती है। प्रकृति केवल समर्पण को प्रधान बोध कराती है, जो प्रेम जिसका पर्याय है देना, जिसका बोध सर्वत्र कराती है। प्रकृति ने कभी भी किसी जीव से किसी संसाधन के लिए मूल्यांकन नही तालिका नहीं दी अपितु सदैव संसाधनों के आवश्यकताओं के अनुसार उन्हे देने का प्रयास किया है। अब सवाल यह उठता है की हम प्रकृति से कितना प्रेम करते हैं? हम प्रकृति को प्रति प्रेम क्या भेंट कर सकते हैं। यह नैतिक जिम्मेदारी हमारी है, प्रेम की पूर्ति प्रेम से करे।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़