Sunday, January 9, 2022

मेरे गांव की सड़क और बंदर-बाँट : प्राज / The road and monkey distribution of my village: Praaj


                                 (व्यंग्य)

सड़क, जो गांव को शहरों से जोड़ती है। जो तरक्की के मुँह दो गांवों की ओर मोड़ती है। चमचमाती सड़क जो शहरों में नजरों को सुकून दें। हाँ भई हाँ, वहीं सड़क कभी-कभी गांवों में भी दौड़ती है। जहाँ गांवों के बच्चे सपने सजाते स्कूल चले हम गाते है। जहाँ छोटे-छोटे नुक्कड़ों और ठेलों की बारात होती है। जहाँ फर्राटा भरते मोटरसाइकिल पर सवार होकर युवा मुस्कुराता है। जहाँ से गुजरकर चिट्ठी लेकर डाकिया गांव को आता है। ये सड़क मानों सारे विकास के रास्ते खोलती है। शांत मौन होकर सबकुछ देखती रहती दिन भर, वो ठंड भी झेलती, वो ठीठूरन भी झेलती। गर्मी के आंच में तपती, बरसात में भीगती मगर तब भी राहगीरों के राह पर साथ नहीं छोड़ती, यार कसम से ये सड़क कुछ नहीं बोलती है।
          सड़क वैसे तो बनने को साल के हर महीने कहीं भी बनते नज़र आती है। मगर चुनावी वादों के दौरान तो जनाब कैंची से भी तेज जुबान पर, रोड़ मैंप तैयार हो जाते हैं। मगर वादों के पश्चात् असल बंदरबाँट के दृश्य प्रदर्शित होते जाते हैं। सड़क के डीजाईन से लेकर, सड़क जहां से गुजरने वाली होती है। उससे पहले मुवावजेदारों के लिस्ट तैयार हो जाते हैं। पहले वहाँ खेत किसी और के थे, जिन्हे खरीदकर, ये असल हो जाते हैं। जहाँ मंत्री से संत्री और अभियांता से लेकर ठेकेदार के हिस्से बराबर कट्स के साथ बाटें जाते हैं। जब बच जाये कुछ हिस्सा तो उससे रोड़ के सपने साकार कर ही दिये जाते हैं।
       पहले लोकेशन और पापुलेशन की ग्राफ भी देखा जाता है। पॉलिटिक्स अगर थोड़ी नरम हो, तो रोड़ जैसे कागज़ पर ही उकेर कर छोड़ दिया जाता है। अचरज की बात तो है जनाब मगर क्या कहें, सच्चाई तो ये है कि रोड़ के बनने से पहले ठेकेदारो की दुकान चमक जाती है। रोड़ समय पर पूरी हो या ना हो क्या फर्क पड़ता है। वैसे भी रोड़ बन जाये तो एक दूसरा भी नुक्सान है। रोड़ पर जनता, रोड़ पर नेता और रोड़ पर नौकरशाही के चक्केजाम तक हो जाते हैं। कम से कम रोड़ ना ही बने वही सोचकर, रोड़ के कंस्ट्रक्टर्स बिन्दास शिथिल होकर, ड्यूटी बजाते हैं। बहरहाल, रोड़ जो जिन्दगी से जोड़ता, स्वास्थ्य के राह को सुगमता में बदलता है। अगर ना हो, तो जाने कितनी जिन्दगी को कुछ और बरस पिछे ढ़केल देता है। गज़ब है जनाब सड़क सबकुछ जानती है। कभी कभी को ये सड़क सरकारी फाईलों में दबकर दम तोड़ देती है। कभी फाईलों से बाहर निकली तो शहर से गांव की ओर बढ़ते बखत दम तोड़ देती है। जाने कितनी समस्याओं को झेलती, मगर सड़क कुछ नहीं बोलती है....!कुछ नहीं बोलती है।


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़