Monday, January 10, 2022

प्रेम : एक शाश्वत धारा , लेखक : पुखराज प्राज / Love : An Eternal Stream, Writer : PraaJ


                                (विचार)


पूरी सृष्टि के सृजन के पूर्ण निश्चय ही प्रेम की कल्पना अवश्य ही रही होगी। क्योंकि बिना प्रेम के जीवन सृजन और उसका उत्थान संभव नहीं है। पूरे पृथ्वी पर ऐसा को व्यक्ति विशेष नहीं होगा? जिसे प्रेम कभी हुआ नहीं हुआ हो। प्रेम, प्राणवायु समान के समान है जो यदि मनुष्य के अंतःकरण में यदि ना  पहुचे तो हृदय अपना स्पंदन और आलिंद में रक्त का प्रवाह रूक जायेगा। मानों मनुष्य संवेदनाओं से विहीन हो जायेगा। प्रेम एक शाश्वत धारा है, जो निरंतर इस भू-पटल पर जीवित होने का प्रमाण है। प्रेम का अनुभव भले व्यक्ति के अबोधता के कारण उसे नहीं चलता, लेकिन वह उसकी अनुभूति से स्वयं को अलग नहीं कर सकता है।
            जैसे किसी भी कहानी में दो प्रमुख पात्र होते हैं। एक जो नायक होता है दूसरा जो उसके जीवन में अवरोधक के रूप में होता है। जिसे खलनायक, दुश्चरित्र वाला या प्रति नायक कह सकते हैं। दोनों ही पात्र के चारित्रिक प्रभाव भिन्न और एक दूसरे से अलग होते हैं। लेकिन दोनो में एक समानता हम उनके हृदय में देख सकते हैं। जिस प्रकार प्रेम नायक को होता है। ठीक वैसे ही प्रेम की विचारधारा खलनायक के जीवन में प्रवेश करता है। अब विवेकी मनुष्य के ऊपर है की प्रेम का आनंद, नितांत अमरत्व की ओर ले जाये या प्रत्यास्थता की सीमा की उलंघन की भाति प्रेम को शुष्क कर दिया जाये। यह पूरी सृष्टि प्रेम का स्वरूप है। जैसे विज्ञान के गति के नियम में है प्रत्येक क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया होती है। ठीक उसकी के भाँति प्रेम, पूरे संसार में व्यापक रूप से व्याप्त है। जो प्रेम में अपने आप को प्रेम कहता है, उस व्यक्ति को प्रत्येक निकाय, चाहे वह जीवित हो या निर्जीव, अमूक हो या वाचाल सब से अपूर्ण प्रेम करता है। प्रेम की विशेषता यह भी है की यह कभी पूर्ण नहीं होता है। यह तो विद्या सम्यक है जो जीतना जानों, और जानने का यत्न बढ़ता है। जितना चाहों और पाने के प्रयत्न को जन्म देता है। प्रेम जो निर्बाध हो, वह कभी मांग की इच्छा नहीं करता है। प्रेम तो देना, जानता है। प्रेम में बलिदान श्रेयस्कर है अपितु हठ से किसी को पाने के प्रयासों सें, प्रेम इत्र है।
           आप कहेंगे की कुछ तो ऐसे भी उदाहरण हैं जो प्रेम के पर्याय से भी कोषों दूर हैं। जिन्हे कभी प्रेम नहीं हो सकता है। कुछ ऐसे भी व्यक्ति होगें दुनिया में जो प्रेम नहीं होने की वकालत तक कर सकते हैं। मगर वास्तविक रहस्य यह है की उसे ही अधिक प्रेम हुआ है। प्रेम, संभव है कि व्यक्ति विशेष नहीं हो, लेकिन किसी से भी प्रेम ना हो यह कहना सर्वदा गलत है की किसी व्यक्ति विशेष को प्रेम हो ही नहीं सकता है। प्रेम अहसास है और जो जीवित है, जिसके शारीरिक संरचना में हृदय और अहसासों को समझने की परख रखता है। तो मैं इस विषयक निश्चित हूँ की वह भी प्रेमी है। और उसके हृदय के अंदर का प्रत्येक स्पंदन उसके हृदय में निवासित प्रेम का प्रमाण है। कुछ जातिगत बात करेंगे, कुछ पंथगत् बात करेंगे। कुछ तो ऐसे भी है जो प्रेम में भी धर्म और प्रेम को ही धर्म बना देंगे। मगर प्रेम तो सर्वव्यापी, सर्वात्मवाद से लब्धित शाश्वत अमरत्व है। वहीं प्रेम में सच्चा प्रेम इस भवसागर में भी ईश्वर के निकट स्वयं को पाता है। क्योंकि प्रेम, परमात्मा की पूजा है। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़