Monday, January 10, 2022

जातिवाद की पटरी पर बेमेल रेलगाड़ी है प्रेम : प्राज / Love is a mismatched train on the track of casteism: Praaj


                                 (अभिव्यक्ति)

पूरे विश्व में एक अनुमानित आंकड़ों के हिसाब से धर्मों की संख्या लगभग 300 से ज्यादा होगी, लेकिन व्यापक रूप से 7 धर्म ही प्रचलित हैं हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख, ईसाई, इस्लाम, यहूदी और वुडू। इसके अलावा पारसी, यजीदी, जेन, शिंतो, पेगन, बहाई, ड्रूज़, मंदेंस, एलामितेस आदि धर्म को मानने वालों की संख्‍या बहुत कम है। बहरहाल आज की पूरी पंचायत तो हमनें जातिवाद और प्रेम के बीच के लिए चयनित किया है, तो विषय से ना भटकते हुए। जाति की उत्पत्ति के विषय में बात करते हैं।  जाति शब्द व्युत्पत्ति की दृष्टि से जाति शब्द संस्कृत की 'जनि' (जन) धातु में 'क्तिन्‌' प्रत्यय लगकर बना है। न्यायसूत्र के अनुसार समानप्रसावात्मिकाजाति अर्थात्‌ जाति समान जन्मवाले लोगों को मिला कर बनती है। 'न्यायसिद्धांतमुक्तावली' के अनुसार जाति की परिभाषा इस प्रकार है - नित्यत्वे सति अनेकसमवेतत्वम्जातिवर्त्त्य' अर्थात्‌ जाति उसे कहते हैं जो नित्य है और अपनी तरह की समस्त वस्तुओं में समवाय संबंध से विद्यमान है। व्याकरण शास्त्र के अनुसार जाति की परिभाषा है - आकृति ग्रहण जातिलिंगनांचनसर्वं भाक्‌ सकृदाख्यातनिर्गाह्या गोत्रंच चरणै: सह। अर्थात्‌ जाति वह है जो आकृति के द्वारा पहचानी जाए, सब लिंगों के साथ न बदल जाए और एक बार के बतलो से ही जान ली जाए। इन परिभाषाओं और शब्द व्युत्पत्ति से स्पष्ट है कि 'जाति' शब्द का प्रयोग प्राचीन समय में विभिन्न मानवजातियों के लिये नहीं होता था। अपितु मनुष्य के पहचान के लिए होता था। शनैः-शनैः लोगों ने व्यवसाय और रहन सहन के अनुसार जाति को प्रासंगिक किया।
              जहाँ, अनेक धर्मों में अनेक जाति हैं। वहीं प्रत्येक जाति के सदस्यों में अपनी जाति को विशिष्ट और अन्य व्यक्ति की जाति को अपने से कमतर मानने की विचारधारा तो जग जाहिर है। जहाँ जातिवाद की संकीर्णता के पृष्ठ में प्रेम की उत्पत्ति के विषय में सोचने से ही डर लगता है। विचार करें की लोगों में जो ऊँच-नीच की खाई है। उसे पाटने के रूप प्रेम यदि कार्य करता है तो लोग क्या करते हैं आपको संभवतः बतलाने की आवश्यकता ही नहीं है।
              दो भिन्न-भिन्न जातियों से संबंध रखने वाले प्रेम युगल यदि अंतर्जातीय संबंध में बंधने का प्रयास करते हैं तो क्या होता है। इस विषयक सोंच कर भी आपकी रूह काप उठेगी। चुँकि प्रत्येक जाति के नियम भिन्न होते हैं। उनके विधान होते हैं। ऐसे में यदि अंतर्जातीय प्रेम प्रसंग का मामला इस तंग जातिवाद के भँवर में फस जाये तो निकलने मुश्किल तो मुश्किल जीना भी आसान नहीं है जनाब। जहाँ एक ओर जाति के लोगों का समुदाय आपको अपनाता नहीं है, वहीं जिस जाति से प्रेमिका हो उस जाति के लोग चैन से जीने नहीं देंगे। कहने की तात्पर्य है कि एक ओर खाई तो दूसरी ओर कुँआ वाली स्थिति से दो चार होना पड़ता है।
          आप कहेंगे की प्रेम विवाह है तो जाति और समाज का कैसा बंधन, जैसे जी रहे वैसे जीना चाहिए। इस विचार पर आपके भ्रम को यूहीं छूमंतर कर सकता हूँ। इसे ऐसे समझे, प्रेम यदि अंतर्जातीय हो,तो दोनों पक्षों की ओर दबाव बनाया जायेगा कि जातिगत बिखराव रोका जाये। वहीं यदि इसमें सफलता नहीं मिली तो, सामाजिक दंड स्वरूप पुरूष प्रधानता का प्रतीक दिखलाते हुए। समाज से बेदख़ली की प्रक्रिया पूर्ण कर दी जाती है। इससे सामाजिक रूप में व्यक्ति अपने आप को अकेला पाता है। चुँकि रहना भी यहाँ, और जाना कहाँ वाली स्थिति में पूनः समाज में सम्मिलित होना भी आवश्यक है। चुँकी यह प्रक्रिया जटिल और तिरस्कृत शैली की है, तो जो इस प्रक्रिया से गुजरता है उसे आजीवन इस बात को नासुर की मवाद की तरह दबा-दबा कर दर्द पे दर्द दिये जाते हैं। चूँकि समाज मानों एक पटरी है और जीवन की रेलगाड़ी उसी पटरी से गुजरना है, तो नियम और शर्तों का पालन करना तो अनिवार्य है। संभवतः इन्ही कारणों से अधिकांश अंतर्जातीय विवाह, विवादों के चलते सफल नहीं होते हैं। 


लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़