(अभिव्यक्ति)
प्रेम, जो हृदय का श्रृंगार है। वह अहसास जो हर निकाय में प्रेम दिखलाता है। कहने का तात्पर्य है प्रेम में प्रेमी, प्रेम का, प्रेम के लिए, प्रेम की सत्ता का सर्वाधिकारी होकर प्रेम की निर्बाधता को धारण करता है। प्रेम जहाँ मनुष्य में अद्वितीय क्षमता, निष्ठा और विवेकी हो जाता है। वहीं प्रेम में अकाट्य मैत्री संबंध की संजीवन बुटी होती है।
जहाँ राग, द्वेष, ईष्या, छल और कपट की भावना हो। जहाँ दुश्मनी की खाई हो। जहाँ बैर में दिखती सबको भलाई हो। जहाँ द्वेष इतना की फूटे आँख भी एक-दुजे को बर्दाश्त नहीं कर सकते हैं। जहाँ विद्रोह ऐसा की सबकुछ नेस्तनाबूत करने को मन आमादा हो। वहाँ पर प्रेम के दे वचन, प्रेम के दो सरल सहज संदेश, कठोर से कठोर पहाड़ को भी ढ़हा सकता है। ये आकाश और पाताल की मिलन मेखला बना सकता है। जहाँ ज्वालामुखी के तप्त लावा की तरह दुश्मनी प्राण लेने को आमादा हो, वहाँ प्रेम एकता की सजीव पुष्प खिला सकता है। जो करुणा में स्नेह ला सकता है। प्रेम वह अमृत है जो मृत रिश्तों में भी प्राण वापस ला सकता है। प्रेम के दो मीठे वचन ही काफी है। ये वचन कड़वाहट भरे चेहरे से मुस्कान के मोती झरा सकता है। मुर्झाये टूटे बिखरे अपनों की खोज परख कर, आँगन में पूनः खुशियाँ भर दिखला सकता है।
प्रेम वह कस्तूरी है जो आजीवन महक, और उसकी बोधता से जग को महका सकता है। प्रेम वह प्रकाश है जो सारे अवरोधक तत्वों को जला सकता है। सार में कहें तो प्रेम, वह मधु है जो निर्बाध होकर, अपना अनुराग सुनता है। प्रेम, कभी किया नहीं जाता है। यह एक अद्वितीय भावनाओं का सरगम है जो स्वतः ही जागृत हो जाता है। जैसे कबीर दास जी ने बुराई पर कहा बुरा जो देखने, अगर हम जगत में निकलते हैं। स्वमेव से अधिक बुराई कहीं और नहीं मिलती है। ठीक वैसे ही प्रेम वह इत्र है जिसका छिड़काव आप जीतना अपनों -गैरों में करेंगे। ठीक समनांतर प्रेम की महक का पान स्वयं भी करेंगे। इस जगत में प्रेम के दे वचन ही काफी है। सबको प्रेम से अपना बनाने के लिए, क्योंकि प्रेम अमरत्व का प्रतिमान है।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़