(व्यंग्य)
वह उलझन वाली विचारणीय बात जिसका निराकरण सहज में न हो सके, उसे भाषा शास्त्री मुद्दा कहते हैं। वैसे तो मुद्दों के प्रकार कई हो सकते हैं। जैसे सामाजिक, आर्थिक, समसामयिक, धार्मिक, विविध, लेकिन सब पर भारी पड़ता है राजनीतिक मुद्दे। भई सवाल, जो जनता का है, जनता के लिए है और जनता के मत के लिए है। चुनावी चौसर की बिसात पर चर्चाओं का महौल तब और गर्म हो जाता है। जब चुनावी तारीख तय होने को आमादा हो। जब जीत-हार के फैसले पर लगा दम निकल चुका आधा हो। तो मुद्दों की कढ़ाई पर विभिन्न पकवान तैयार किये जाते हैं। ज़ायके में इजाफा हो इसके लिए मसाला रूपी मसलों को अच्छे से कुट कर रैसिपी तैयार किये जाते हैं। कमबख़्त तंग रसोई में भी खचाखच भरे हलवाई की तरह विचारधाराओं के बैनर लिए पक्ष-विपक्ष यहाँ तक की बे-पक्ष के हलवाई अपने-अपने एक्सपेरिमेंट आजमाते नजर आते हैं।
कुछ मुद्दों पर जातिवाद के छीटें भी जरूरी है। कुछ मसलों में धर्म, आरक्षण, सवर्ण-दलित और तो और जायके बनाये रखने के लिए फैशन को भी घेरे लिए जाते हैं। वास्तविक धरातल से थोड़ा ऊपर जैसे मरीचिका ही बनी हो। उसकी के समरूप मुद्दों पर खेल जाते हैं। कोई विधान को लेकर, कोई रोजगार पर और कोई ईंट-गारे की शिकायत पर चीखते चिल्लाते है। मगर गौण होती है विकास की बातें क्योंकि उस पर वोट बैंक की गणित त्रिकोणमिति के मान की तरह उलझन ही पाते हैं।
जहाँ युवा के ट्रेंड में चिंतित, बुजुर्गों के धाम में विस्तृत जो अपनी गंभीरता दिखलाते हैं। रोजगार की गाड़ी को सब चुन-चुनकर निशाना लगाते हैं। मगर धक्का कौन लगाए जनाब इसी में लोग सौ फीसदी पिछड़े जाते हैं। खैर मुद्दों की रसोई में पकते पकवान तो सभी के घर से आई लकड़ियों से है। पकवान पके तो, बंदरबाट दिखलाते हैं। कोई गठबंधन, कोई अकेला, कोई अपने सरीखे लोगों की भीड़ देख मुस्कुराते हैं। मुद्दों की रसोई तो जैसे कोई प्रयोगशाला हो, केवल जीत तय करने तक मेरा-मेरा कहकर रस्साकशी कर जाते हैं। बंद फिर परीणाम वहीं, चुल्हे की ठंडी आग को मृत होते देखते रहते हैं। जब तक दोबारा चुनावी सर्कस के दिन दोबारा नहीं आते हैं। आम जनादर्नों की बात क्या करें? दो जाम,दो कपड़े, दो टुकड़े पाकर अपने मत्थे ही कलंक चढ़ाते हैं। बदहाली के हाल में भी जनता ही सर्वोपरि कहलाते हैं। रंग-बिरंगे मुद्दों के जायके के गंध में मदमस्त जो बेचारे हो जाते हैं।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़