Monday, January 3, 2022

प्रेम की परिभाषा संसर्जन है,भङ्ग नहीं : प्राज / Definition of love is creation, not dissolution: Praaj


                               (दर्शन)

'जिसके वशीभूत हो प्रभु ने जगत ये रच दिया। 
कृष्ण की बंसी बजी ..किसने इसको सुर दिया। 
हर हृदय में बस रहा वो भाव जो वरदान है। 
पवित्र व् कल्यानमय ,'प्रेम' उसका नाम है।'

प्रेम, मनीषियों के मतानुसार साधना का पर्याय है। परंतू प्रेम को शब्दों की सीमा में बाँध पाना इतना आसान भी तो नहीं है। प्रेम की उत्पत्ति के लेकर संस्कृत में एक श्लोक का अवश्य ही मन:पटल पर आता है। 


दर्शने स्पर्शणे वापि श्रवणे भाषणेऽपि वा।
यत्र द्रवत्यन्तरङ्गं स स्नेह इति कथ्यते॥

अर्थात् यदि किसी को देखने से, स्पर्श करने से या सुनने से या वार्ता करने से हृदय द्रवित हो तरङ्गमय हो जाये तो इसे स्नेह(प्रेम) कहते हैँ। सामान्यतः शब्दों में कहें तो किसी की छवि हृदय को प्रफुल्लित कर दे और अनायास है उसके प्रति मन में सकारात्मक विचार और अद्वितीय आकर्षण दोनो एक साथ पनपते है। यह आकर्षण शारीरिक ना होकर आत्मिक होता है, वहीं प्रेम है। प्रेम के छ: लक्षण भी बताए गए हैं, 

ददाति प्रतिगृह्णाति गुह्यमाख्याति पृच्छति।
भुङ्क्ते भोजयते चैव षड्विधं प्रीतिलक्षणम्॥

जहाँ प्रेम में मेलमिलाप एवं संयोजन के प्रकारों से लेना, देना, खाना, खिलाना, रहस्य बताना और उन्हें सुनना ये सभी 6 प्रेम के लक्षणों में तासीर करते हैं। वहीं सुफी संत राबिया प्रेम पर व्यापक रूप में व्याख्या देते कहतीं है, 'प्रेम किया नहीं जाता। प्रेम तो मन के भीतर अपने आप अंकुरित होने वाली भावना है। प्रेम के अंकुरित होने पर मन के अंदर घृणा के लिए कोई जगह नहीं होगी। हम सबकी एक ही तकलीफ है। हम सोचते हैं कि हमसे कोई प्रेम नहीं करता। यह कोई नहीं सोचता कि प्रेम दूसरों से लेने की चीज नहीं है, यह देने की चीज है। हम प्रेम देते हैं। यदि शैतान से प्रेम करोगे तो वह भी प्रेम का हाथ बढ़ाएगा।'' 
            उक्त मतानुसार, हम समझने का प्रयास करें तो, प्रेम में वह शक्ति है जो अधम को परिवर्तित कर उत्तम की श्रेणी में खड़ा कर सकता है। प्रेम में वो सामर्थ्य है जो पाषाण में प्राण, करुणा में उत्सव, और द्वेष में वैराग्य साध्य कर सकता है। प्रेम, आकर्षण से इतर देने की बात करता है। यह लब्धिनिधानाय नहीं तंत्र नहीं है। यह शाश्वत अनुभव और अनुभूति है। जो समर्थन और समर्पण के पुष्प उद्भेदित करती है। 
        प्रिय सज्जनों प्रेम न तो खेतों में पैदा होता है और न बाजारों में बिकता है। यह तो सिर देने से (समर्पित होने से) मिलता है अर्थात त्याग से प्रेम पलता है। रूप–सौंदर्य का मोह और वासनात्मक अंग मिलन की चेष्टा प्रेम नहीं है, किंतु आत्म कल्याण और लोक कल्याण के लिए त्याग, सेवा, समर्पण आदि प्रेम की परिभाषा है।

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़