Monday, January 3, 2022

बिखरते सोशल मैकेनिज्म की व्यथा : प्राज / The agony of the disintegrating social mechanism: Praaj


                                  (अभिव्यक्ति)


वर्तमान परिदृश्य में समाज एक ऐसा तंत्र है, जिसके आवरण में रहकर मनुष्य अपने आपको सहज पाता है। कथानुसार, एकता में शक्ति जैसे कथावाचकों से लब्धि प्रतित करता है। ग्रीन ने समाज की अवधारणा की जो व्याख्या की है उसके अनुसार, समाज एक बहुत बड़ा समूह है जिसका कोई भी व्यक्ति सदस्य हो सकता है। समाज जनसंख्या, संगठन, समय,स्थान और स्वार्थों से बना होता है। कहने का तात्पर्य है समाज एक संघटित क्षेत्र हैं। जहाँ रहकर मनुष्य अपने और अपने परिवार का संरक्षण देखता है। समाजशास्त्री एडम स्मिथ इसी सदर्भ में कहते हैं, मनुष्य ने पारस्परिक लाभ के निमित्त जो कृत्रिम उपाय किया है, वह समाज है।
            यानी एकता में सबलता को ढूढ़ने के प्रयास आदिम मानवों ने किया और सफलतापूर्वक उसने मनुष्य के भावी संरक्षणों को संवर्धित करते हुए समाज की परिकल्पना की। समाज जो निश्चित मापदंड एवं विविध समाज उत्थान के प्रति कार्यों की सराहना एवं संकलन करता है। उदाहरणतः हम समझने का प्रयास करें तो आदिम से आधुनिकता के सफर में कई अमूलचूल परिवर्तन होते ही रहे हैं। वर्तमान की बात करें तो जैसे जैसे समाज में निवासरत लोगों में शिक्षा और आधुनिकता का प्रसार होता है। वैसे-वैसे ही समाज में भी अपग्रेडेशन प्रक्रिया सतत् चलती रहती है। समाजवाद के पक्षधर रहे डॉ. जेम्स इसी संदर्भ में कहते हैं, मनुष्य के शान्तिपूर्ण सम्बन्धों की अवस्था का नाम समाज है। वहीं समाज के सतत् विकास के संदर्भ में विस्तार से प्रकाश डालते हुए गिडिंग्स बतलाते हैं, समाज स्वयं एक संघ है, यह एक संगठन है और व्यवहारों का योग है, जिसमें सहयोग देने वाले व्यक्ति एक-दूसरे से सम्बंधित है।
भौतिकवादी विचारों के जलकुंभी में मनुष्य चरमोत्कर्ष स्थिति में उलझा हुआ है। इस उलझन की स्थिति में एक ओर जहाँ वह अपनी सुख-संमृद्धि को सर्वोपरि समझता है। तो दूसरी ओर समाज के अन्य व्यक्ति विशेष की दुविधाओं को निम्न से भी कमतर आकलन करता है। इसी अंतर के कारण शनैः- शनैः मगर समाज में एक अस्थिरता व्यापक रूप से व्याप्त होने को आमादा है। जहाँ आपसी वैमनस्य और बैर दरार से खाई में तब्दील होने लगे हैं। वहीं भौतिकता के अंधानुकरण के चलते आपसी सहयोग और उदारता के भाव शुष्कता को ग्राही होने लगे हैं। कुछ अपराधों में ऐसे भी अपराध जग जाहिर हुए हैं जिनमें सफेदपोश, नातेदारी में द्वेष का पनपना संभावित हैं। हम जहाँ कबीर, रहिमन, तुलसी और ईसा को संदेशों को सुनते, समझते बढ़े हुए हैं, लेकिन प्रासंगिकता में नैतिकमूल्यों का पालन तो दूर, विचार के मेंघों में भी ख्याली वर्षा तक नहीं होने देते हैं। ऐसे अप्रकृतिक और क्रांकिटकृत होते रिश्तों की स्थिरता केवल और केवल अर्थ के आधार पर ही सुनिश्चित करने लगे हैं। जो भावी समय में इस कलयुग की डगर को और अगम्य और विकट बनाने के सार प्रदर्शित करते हैं। जहाँ धन की नोक पर, समाज के फैसले और मुद्दे करवट बदलते प्रदर्शित होते रहेंगे। 

लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़