भारतवर्ष कृषि प्रधान देश है, जहाँ कुल स्थलीय क्षेत्रफल के 51 फिसदी जमीन पर कृषि किया जाता है। कृषि के महत्व को समझने के पूर्व भूमि, मृदा को समझने की प्रयास करते हैं। कजे. उल्मर भूमि को समझाते हुए कहते हैं- प्रकृति के द्वारा प्रदत्त समस्त आर्थिक पदार्थों तथा धन को भूमि कहा जाता है। प्राकृतिक साधनों को उनकी मौलिक अवस्था मे भूमि कहा जाता है।
वहीं प्रो. केयरनक्रास के शब्दों में सूर्य की रोशनी, वर्षा इत्यादि को भूमि के अंतर्गत शामिल नही करते, क्योंकि इन पर किसी का अधिकार एवं नियंत्रण नही होता। कृषि विज्ञान से जूड़े प्रो. मार्शल के अनुसार, भूमि का अर्थ केवल जमीन की ऊपरी सतह से ही नही है, वरन् उन समस्त पदार्थों एवं शक्तियों से है जो प्रकृति ने भूमि, जल, वायू, प्रकाश, तथा गर्मी के रूप मे, मनुष्य की सहायता के लिये, निःशुल्क प्रदान की है।
साथ ही अमेरिकी मृदा विशेषज्ञ डाॅ बैनेट के अनुसार, मृदा भूपृष्ठ पर मिलने वाले असंगठित पदार्थों की वह ऊपरी परत है जो मूल चट्टानों अथवा वनस्पति के योग से बनती है।
यानी मृदा एवं भूमि में संकीर्ण अंतर है। कह सकते हैं कि मृदा वह उर्वरायुक्त भू-भाग है, जो भूमि की उपरी सतह है। जिसमें कृषि कार्य किया जाता है, शेष भाग भूमि है।
हमने मृदा और भूमि दोनो को समझ लिया, अब बढ़ते हैं अगले पड़ाव की ओर यानी कृषि के तरफ, मनुष्य ने आदिमकाल में आग के खोज के साथ कृषि करना भी सीख लिया। जिसके पश्चात् शनैः-शनै: कृषि में अमूलचूल परिवर्तन होते रहे। इसके साथ ही पहले भाप इंजन का आविष्कार 1812 में रिचर्ड ट्रेविथिक ने किया। जो बार्न इंजन के तौर पर जाना गया । जिसका इस्तेमाल मकई निकालने के लिए किया जाता था। 1903 में दो अमरीकी चार्ल्स डब्ल्यू. हार्ट और चार्ल्स एच. पार्र ने दो-सिलेंडर वाले ईंधन से चलने वाले इंजन का उपयोग करते हुए सफलतापूर्वक पहला ट्रैक्टर बनाया था। जिसमें कृषि को नई दिशा दिखाया। दुनियाभर में भारत को कृषि प्रधान देश के रूप में भी जाना जाता है। कहा जाता है कि भारत में ट्रैक्टर की शुरुआत स्वतंत्रता के बाद ‘हरित क्रांति’ से हुई थी। जहां ट्रैक्टर का इस्तेमाल काफी तेजी से हुआ था। भारत ने ट्रैक्टरों का निर्माण 1950 और 1960 के दशक में शूरू किया था। जिससे भारत के कृषि प्रणाली में बहुत तेजी से परिवर्तन देखे जाने लगे, जो वर्तमान तक देखे जा सकते हैं।
1960 के दशक में आई हरित क्रांति ने तीव्र कृषि उत्पादन, विशेष रूप से खाद्यान्न उत्पादन के एक नए युग का सूत्रपात किया। इस क्रांति का एक प्रमुख उत्प्रेरक रासायनिक उर्वरकों का प्रयोग रहा। भारत तब खाद्यान्न की अत्यंत कमी से जूझ रहा था और कृषि में इन रासायनिक उर्वरकों ने सहयोगी भूमिका निभाई। रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और सिंचाई में भारी निवेश ने उच्च फसल उत्पादन का लक्ष्य पूरा किया। निश्चय ही हरित क्रांति ने तात्कालिक संकट का समाधान किया।
रसायनिक उर्वरकों के अंधाधुध इस्तेमाल से पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंच रहा है। रासायनिक उर्वरकों के बेइंतहा इस्तेमाल से जहां खेतों की उर्वरा शक्ति क्षीण होती जा रही है, वहीं सचाई के लिए पानी की भी कमी होती जा रही। केंद्रीय रासायनिक और उर्वरक मंत्रालय के रिपोर्ट अनुसार 1950.51 में भारतीय किसान मात्र सात लाख टन रासायनिक उर्वरक का इस्तेमाल करते थे, जो अब कई सौ गुणा बढ़कर 310 लाख टन हो गया है। इसमें 70 लाख टन विदेशों से आयात किया जाता है। निश्चित ही बढ़ रहे रासायनिक उर्वरक के इस्तमाल से पैदावार भी बढ़ी है लेकिन खेत व खेती के साथ पर्यावरण पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। वर्तमान समय में जैविक खाद का कृषि में भारी मात्रा में प्रयोग के विषय में कृषकों को विचार करना आवश्यक है, अन्यथा रासायनिक खाद के बेतहाशा प्रयोग कृषिभूमि को रेगिस्तान में बदलकर रख देंगे।
लेखक
पुखराज प्राज
छत्तीसगढ़