परिमेय होना था सरल,पर गिद्ध कैसे छाप डाला।
चौंक-चौराहों पर रद्दी के भाव में बिके कुछ भीड़,
नीड़ से रिसते लालच को चाटुकारों ने भाँप डाला।
मोल भाव में लगे,दो-चार दलाल दलाली में देखों,
वास्तविकता के बिम्ब में मरीचिका जो खाप डाला।
किसे पता, ठूँठ में बैठ कागा क्या नोच खाएगा?
पारदर्शिता की परिभाषा पर मनमर्जी का भाप डाला।
मर्म इस मरुस्थल में माना मेहराब में मोती से जड़ें हैं।
मगर मुसल्सल मेहनत पर किसने हैं प्रकाश डाला?
अपरिपक्वता का प्रमेय,अजबंधुओं ने नाप डाला।
परिमेय होना था सरल,पर गिद्ध कैसे छाप डाला।
पुखराज प्राज