पुस्तकालय के संदर्भ में बात करें तो प्रायः लोग कहेंगे कि यह तो विद्यालय, महाविद्यालय और विश्वविद्यालय तक सीमित होता है। जहाँ बच्चें पढ़ते है और अपने पाठ्यक्रम पर आधारित विषयों के प्रलेख प्राप्त करते है। अमुमन लोगों का जुड़ाव पुस्तकालय से नहीं होता है या कह सकते हैं कि पुस्तकालय को शिक्षा केन्द्रों के चारदिवारी तक सीमित समझते है। पढ़ने- लिखने के लिए कोई निश्चित आयु वर्ग या सीमा नहीं होता है, परंतु स्कूल, कॉलेज की पढ़ाई के बाद लोगों को एक स्थान पर प्रलेखों का निश्चित स्थान का मिलना और चुनाव करना भी तो टेढ़ी खीर से कम नहीं है। शहरों में जहां पब्लिक लाइब्रेरी या वाचनालयों की स्थापना कागज़ी रूप में या कहीं-कहीं बेमौसमी बारिश की तरह निर्माण स्वरूप स्थापित हैं। मेरे मन में एक छोटा सा प्रश्न उत्पन्न हुआ, माइक्रो ट्रेंड्स के वर्ष 2019 के ऑकड़ों के अनुसार 89.5 करोड़ की जनसंख्या गांवों में निवासित है। क्या इन ग्राम्य जीवन के लब्धि लोगों के लिए पुस्तकालय की सेवा शून्य माना जाये? या उन्हे पठन-पाठन के लिए प्रेरित किया जा सकता है ? प्रश्न तो संभावित है कि छोटे हैं पर उनके उत्तर तलासना भी रेत के मैदान में कुएं खोदने से कम तो नहीं है। नेल्सन मंडेला के अनुसार- ज्ञान वो सबसे शक्तिशाली हथियार है जिससे आप पूरी दुनिया बदल सकते है। मंडेला जी के शब्दों में जहां शिक्षा को विश्व का सबसे सशक्त शक्ति के परिभाषा के रूप में परिभाषित किया गया है। क्या हम हमारे ग्रामीण जीवन के लोगों को ज्ञान शक्ति से दूर रखे यह कहां तक सहीं है? अन्थोनी जे. डी एंजेलो लिखते हैं कि वहीं सीखने के लिए एक जूनून पैदा कीजिये। यदि आप कर लेंगे तो आपका विकास कभी नहीं रुकेगा। यानी ज्ञान सभी के लिए आवश्यक है और यदि आपको विकसित होना है, तो सबसे पहले अध्ययन को सशक्त बनाना आवश्यक है। अध्ययन के लिए आवश्यक है अध्ययन केन्द्र का होना यानी पुस्तकालयों की स्थापना करना। यहाँ तर्क ये नहीं है कि केवल शासकिय अनुदान से ही पुस्तकालय स्थापित हो। लोगों के द्वारा,लोगों के लिए, लोगों के जूड़ाव से, लोगों की अपनी लाईब्रेरी भी स्थापित किया जा सकता है। आवश्यकता है तो, केवल और केवल लोगों में इच्छाशक्ति जाग्रत करने और उन्हें प्रेरित करने के लिए। निश्चय ही प्राथम्य कदम चाहे कुछ न कर सके लेकिन बदलाव की ओर एक छोटा कदम तो जरूर है। माना की भारत गांवों का, कस्बों का देश है। संभव है प्रत्येक गांवों में पुस्तकालय की स्थापना संभव ना हो, लेकिन इच्छाशक्ति चाहे तो क्या नहीं हो सकता है। लोगों में पुस्तक के वाचन के लिए स्वप्रेरण की आवश्यकता एवं जन जागरूकता आवश्यक है। वहीं ग्राम पंचायतों में स्थापित वाचनालयों की उपयोगिता पर ग्रामीणों को प्रयास करना चाहिए।
ग्रंथालय के लिए समर्पित स्वयंसेवकों की कमी-
ग्रंथालय के संदर्भ में जहाँ एक बड़ी समस्या यह है कि लोगों को पुस्तकालय एवं पुस्तकालय के उपयोग के संदर्भ के कोई विशेष ज्ञान नहीं है। वहीं दूसरी बड़ी समस्या यह भी है कि ग्रंथालय एवं सूचना विज्ञान के विषयों में स्नातक और परास्नातक डिग्रीधारी लोगों के लिए यह शिक्षा केवल रोजगारोन्मुखी संसाधन से कुछ ज्यादा अधिक विचार करने के योग्य नहीं प्रतित हो रहा है। हमारे राज्य के ही बात करें तो 1000-1500 विद्यार्थी पुस्तकालय एवं सूचना विज्ञान के विषय में स्नातक की डिग्रियाँ प्राप्त करते हैं, लेकिन उनमें से कुछ ऐसे प्रतिभाशाली ही विद्यार्थी होते हैं जो पुस्तकालय के विकास या पुस्तकालय के गठन के विषय में विचार करते है। ऐसे विद्यार्थियों को ढूढ़ना मानों घास के मैदान में सुई ढूढ़ने के समान है। बहरहाल वर्तमान स्थिति यह है कि जो छात्र ग्रंथालय एवं सूचना विज्ञान में पढ़कर पासआउट हो रहे हैं, वो केवल अपने कैरियर और रोजगार को प्राइमरी और ग्रंथालय की सेवा को सेकेंडरी प्रायोरिटिज्स(समय मिल गया तो देखेंगे) के रूप में देखते हैं।
जन जागरूकता अभियान की आवश्यकता-
पुस्तकालय का मूल होता है पुस्तक और स्वच्छ पुस्तकालय सेवा के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता है पठन सामग्री का होना। पठन सामग्रियों के संसाधन के अलावा दूसरी बड़ी चुनौती है पाठक वर्ग का होना। लाज़मी है कि किसी ग्रामीण क्षेत्र में यदि हम पुस्तकालय की कल्पना करते हैं, तो सर्वप्रथम पुस्तकों के लिए पाठक वर्ग का निर्माण करना है। इस विषयक आवश्यक है जन-जागरूकता अभियान के रूप लोगों को डोर-टू-डोर अध्ययन और नियमित रूप से लाईब्रेरी की ओर आकर्षित किया जाए। तभी संभव है पुस्तकालय का वास्तविक उपभोग एवं पुस्तकालय को जन-जन तक पहुचाने के अटल निश्चय का प्रसार कर पाना।
डीजी लाईब्रेरी की हो प्रासंगिकता-
एक बास के पेड़ से 100 कागज के पन्नें बनते हैं। वहीं सेंटर फॉर साइंस एंड टेक्नोलॉजी डिपार्टमेंट, इंडिया के एक सर्वे के अनुसार हर दिन 18 पेड़ काटे जाते हैं और सिर्फ एक पेड़ लगाए जाते हैं। आप अनुमान लगा सकते हैं की जो किताब आपके हाथ में है उसके निर्माण में कितने बांस के पेड़ कट गए होंगे। जैसे-जैसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सोपान अागे बढ़ रहे हैं। उसी के समरूप लाईब्रेरी को भी अपडेट करते रहना पड़ेगा। जहाँ हम बात कर रहे हैं ग्रामीण क्षेत्रों में लाईब्रेरी के स्थापना के लिए, उसके लिए डीजी लाईब्रेरी का कान्सेप्ट से बेहतर विकल्प नहीं हो सकता है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है पाठकों का जुड़ाव और अपडेटेड वर्जन की ओर अग्रसर हों।
पुखराज प्राज
लेखक
साहित्य साधना सभा,
छत्तीसगढ़