Monday, May 18, 2020

अंशयितृ-बोध(कविता) : पुखराज प्राज

रचनाकार- पुखराज प्राज
शीर्षक- अंशयितृ-बोध
विधा- कविता

किसकी,न्यह्न में तेजोभूरु दिख रही है।
ना जाने,औसेर अनिष्टों से दिख रही है।

मनुष्यकार मानों मंदित फिर अंगविकल, 
घड़ी ज्यों-ज्यों संदेहों आपसी बढ़ रही है। 

अपारदर्शिता बनी जननी सालश्रृङ्ग की, 
अपने-पराये की तब से परख हो रही है। 

रक्तश्रृङ्ग से विशाल थे विश्वासों की माला, 
टूटे-छूटे-फूटे रटन द्वेष- विद्या हो रही है। 

ज्ञानगम्य को चलना था अर्रे ओ पथिक, 
जाने कैसे स्मृति स्कन्धश्रृङ्ग से हो रही है।

जाने कहाँ...........मानवता खो रही है। 
जाने कहाँ...........मानवता खो रही है।


         *_पुखराज प्राज*