शीर्षक- अंशयितृ-बोध
विधा- कविता
किसकी,न्यह्न में तेजोभूरु दिख रही है।
ना जाने,औसेर अनिष्टों से दिख रही है।
मनुष्यकार मानों मंदित फिर अंगविकल,
घड़ी ज्यों-ज्यों संदेहों आपसी बढ़ रही है।
अपारदर्शिता बनी जननी सालश्रृङ्ग की,
अपने-पराये की तब से परख हो रही है।
रक्तश्रृङ्ग से विशाल थे विश्वासों की माला,
टूटे-छूटे-फूटे रटन द्वेष- विद्या हो रही है।
ज्ञानगम्य को चलना था अर्रे ओ पथिक,
जाने कैसे स्मृति स्कन्धश्रृङ्ग से हो रही है।
जाने कहाँ...........मानवता खो रही है।
जाने कहाँ...........मानवता खो रही है।
*_पुखराज प्राज*