छत्तीसगढ़|| एक कल्पना, एक सोच कहें या औरों से बेहतर जीवन की चाह कहें, हम रोज रोटी, कपड़ा और मकान की सुविधाओं को दुरुस्त करने में मसरूफ़ रहते है। थोड़ी-बहुत तो प्रतिस्पर्धा की गियर के किक़ मरने वाला विचार इसे ही कह सकते हैं। जो आगे चलकर, भौतिकता का अंध-लोभी बनाने के लिए अफ़ीम के समान है।
बहरहाल, मैनें कहीं सुना था की चित्रपट से लोग बहुत कुछ सिखते है। कहना तो सहीं भी है, अभी से थोड़ा पीछे 1977 में आई फिल्म घरोंदा के उस गीत का जिक्र जरूर करना चाहूंगा। जिसे गुलजार साहब ने लिखा और स्वर रानू लैला, भूपेन्द्र ने दिया। जिसके संगीतकार जयदेव साहब थे। कमाल का गीत है- "दो दीवाने शहर में, रात में और दोपहर में
आब-ओ-दाना ढूँढते हैं एक आशियाना ढूँढते हैं।" बेमिशल शब्दों के साथ लिखा गया है, जो आज भी लोगों के दिलोंदिमाग पर राज किये हुए है। गाने की बोल की तरह ही लोगों की जिन्दगी भी आशियाने, दो पल ठहर जाने और कुछ अच्छा खाने के फिराक में कट जाती है।
विषय से थोड़ा इतर एक संवाद की ओर आपका ध्यानाकर्षण चाहूंगा। किसी मित्र ने पूछा- "यार तनख़ा क्यों कहते है?" समाने से जवाब जवाब़ आया- "जब महिने भर तन को तपाकर, जिस मूल्य से घर के ३० दिन चल जाते हैं उसे तनख़ा, तनख़ाह या तनख़्वाह कहते हैं।" समाने वाले के चारों खाने चित्त हो गए। हालांकि यह परिभाषा व्यकरण सम्मत पूर्ण गलत हो, पर उसकी भावात्मक व्याख्या सटीक ही प्रतित होता है। लोग रोज जी तोड़ मेहनत करते हैं, उसकी वज़ह सिर्फ एक है। वह है आने वाला कल सुरक्षित हो..!!! पर किसी के विचारों ने भी गज़ब कहा है कि- "आज कभी गया नहीं और कल कभी आया नहीं..! " शनै:- शनैः सही मगर कुछ तो बने, कुछ तो करें इसी लोलुप्ता में लिप्त हाड़ मास का मानव, लोहे को पिघला देता है, पहाड़ तोड़ देता है। श्रम का दोहन भले चाहे जिस रूप में हो, मूल्य की कीमत का वहीं जानता है। जिसको आवश्यकता होती है।
प्रारंभिक आवश्यकताओं के नींव के ऊपर तो लालच से भरा भौतिक लोभन का महल जगमगाता ही दिखलाई पड़ता है। शायद ही ध्यान जाता है लेकिन अधिक पाने की चाह में लोग डिप्रेशन के शिकार होने लग जाते हैं। भारतवर्ष में लगभग 5 करोड़ लोग डिप्रेशन के शिकार हैं। ये स्थिति बहुत ही गम्भीर है। वर्तमान में बचपन चुराने का प्रयत्न भी स्मार्टफोन के मायावी प्रवेश द्वार के सामने नन्हे बच्चों को रखने का श्रेय भी, एक प्रकार से अपने स्तर के लोगों से अपने आप को भिन्न करने की प्रतिक्रिया है, पर शायद हम नहीं जानते की स्मार्टफोन की लत कच्छप चाल से नोमोफोबिया की ओर ढ़केलती है। साथ ही युवा पीढ़ी में अक्शर ये देखने को मिलता है की आत्मविश्वास की कमी को छिपाने के लिए 41 फिसदी लोग स्मार्टफोन में व्यस्तता का ढ़ोंग फैशन के रूप में करते हैं।
एक छोटा सा विचार मेरे मष्तिष्क पर हिलोरें ले रहा है कि, यदि 50वर्षों तक लगातार हम अपने आप को औरों से बेहतर करने का होड़ रूपी ढ़ोंग करते रहेंगे तो फिर बुढ़ापे में चैंन की जिंदगी तलासना तो जैसे घास के मैदान से सुई ढूढ़ने के समान ही कार्य नहीं होगा। जाने किस ओर जिन्दगी चलने लगी है। जाने किस ओर अंध ख़्वार ख़्याल की ओर भटक निकलें हैं। जाने किस अदृश्य कर के सालमंजिका बन गए हैं, हम।
लेखक
पुखराज प्राज
संदर्भ-
०१. गुगल डॉट कॉम
०२. लिरिक्स इण्डिया डॉट कॉम
०३. अमर उजाला डॉट कॉम
०४. जागरण डॉट काम
०५. विकिपीडिया