Friday, April 17, 2020

मर्तबान भरकर खुशी by poet pukhraj yadav praj

बैरंग कोलाहल हैं कहीं न कहीं, 
शांत, गलियों में कुनमुनाते हुए। 

शायद पेट के ज्वाल को, 
खारे आँशुओं के छौंक से भिगोते हुए।
 
ये मंजर आपका नहीं है जनाब़, 
ये मंजर आपका नहीं है जनाब़...! 

ये हालात है,
उन धूप में श्रम बेचने वालों का। 
ये हालात है, 
उन कारखानों में तपिश से तपने वालों का। 
ये हालात है,
उन नंगे पाव चिलचिलाते धूप में रोजी पाने वालों का। 
जिनके घर दीये भी, शाम के खरिदी तेल जलाते है।
जाने इस मंदी,गृहबंदी के दौर में वो घर कैसे चलाते हैं। 

ये सवाल ज्वार-भाटा सा,मष्तिष्क से टकराता है। 
जाने वो दिहाड़ी रोज बिटियाँ को क्या खिलाता है। 
 
मिरी स्मृतियां दोहराते कहते-
बैरंग कोलाहल हैं कहीं न कहीं, 
शांत गलियों में  कुनमुनाते हुए।

कवि- पुखराज यादव "प्राज"