"थका-थका रहने लगा हूं, शहर के चकाचौंध में।
थोड़े राहत भरे पल यार,अब मुझको लौटा दो।
टूटते बिखरते रिश्तों के मायाजाल से व्यथित हुं,
गांव के गली-खोर की, बैरंग हवा मुझको लगा दो।
कृत्रिम रिश्तों के पुल तले स्वार्थ की धारा दिखी।
छूटा जो पुराना मेरे घर का आँगन लौटा दो,
रिश्तों से भरा मुझे मेरे सपनों का गांव लौटा दो।"
_प्राज
इन्ही पंक्तियों पर केन्द्रित आज मन:पटल पर न जाने कैसे विचार आया की लिविंग रिलेशनशीप, न्यूक्लियर फैमली की आवधारणा का विस्तर निरंतर हो रहा है। विचार आया की हम तो भारतवर्ष के वासी हैं और हमारी संस्कृति और सभ्यता का गौरवशाली इतिहास रहा है। जहां परिवार ईंट, पत्थर या गारे से नहीं, लोगों से घर बनता है। फिर ऐसे विचारों के राजधानीं के बासिंदों के मन में न्यूक्लियर और लिविंग जैसे विचार का पनपना आश्चर्य है। विचार आया की परिवार क्या है- "परिवार, विवाह, रक्त, या गोद लेने के संबंध में एकजुट व्यक्तियों का एक समूह, एक घर का गठन और एक दूसरे के साथ अपने संबंधित सामाजिक पदों, आमतौर पर पति / पत्नी, माता-पिता, बच्चों और भाई-बहनों से मिलके एक परिवार बनता है।" लेकिन कुछ वर्षों में जैसे-जैसे हम इंटरनेशनल विलेज की ओर बढ़े, सांस्कृतिकदृष्टी से बहुत सारे परिवर्तन हुए। रिश्तों- नातों, पारिवारिक मूल्यों में पाश्चात् संस्कृति का प्रकोप पड़ा और इसने गम्भीर मात्रा में सास्कृतिक क्षेत्र में आघात किया। वहीं इंटरनेट और सोशल प्लेटफार्मों के जरिये समाज विरोधी विचारधारा(जैसे वयस्क छायाचित्रांकन, कामुक विज्ञापनों सहित अन्य कारण) के पैर पसारने से, खासकर किशोरावस्था एवं युवास्था के वर्ग पर इसका प्रतिकुल प्रभाव पड़ा। जहां सिर्फ खून के रिश्तों के प्रति वर्तमान में सम्मान की भावना शेष रही, अपितु अन्य रिश्तों को केवल लाभ की दृष्टिकोण से देखा जाने लगा। इस परिवर्तन के भयावह रूप आप, दैनिक अख़बारों के नारियों पर हुए अत्याचारों के ख़बरों से रंगें पन्ने रोज देख सकते हैं।
पारिवारिक तनाव, पारिवारिक संबंधों के प्रति, व्यवहार हनन और कई ऐसे उदाहरण है, जिनका उल्लेख करना भी मेरे लिए सीमा लांघने के तुल्य है। पारिवारिक संबंधो की पराकाष्ठा का एक उदाहरण वर्तमान के लोगों के मध्य अवश्य रखना चाहुंगा।
श्री वाल्मिकी जी के रामायण के किष्किन्धाकाण्ड के पृष्ठ संख्या ३२ में की पंक्तियों का उदाहरण प्रस्तुत करना चाहुंगा की-
"नाहं जानामि केयूरे नाहं जानामि कुण्डले।।
नूपुरे त्वभिजानामि नित्यं पादाभिवन्दनात्।"
अर्थात् :- राम जी, जब लक्ष्मण जी को माता सीता के आभुषण दिखा कर पूछते हैं कि- "क्या यह आभूषण सीता जी के हैं? "
तो लक्ष्मण जी कहते है : ! मै इन बाजूबन्दों और कुण्डलों को तो नहीं पहचानता हूँ किन्तु प्रतिदिन भाभी के चरणों मे जब प्रणाम करता था ; तब इन नूपुरों पर दृष्टि पड़ जाती थी।इसलिए इन नूपुरों को अवश्य पहचानता हूँ ।
केवल इन दो पंक्तियों से ही आप अंदाजा लगा सकते हैं। पारिवारिक रिश्तों तो निभाना और पारिवारिक संबंधों की पराकाष्ठा हमारे संस्कृति की धरोहर है।
हम कहीं पाश्चात् संस्कृति का अंधानुकरण तो नहीं कर रहे है। इस विषय में विचार अवश्य कीजिएगा....!!! आपका
लेखक
पुखराज प्राज