खूद के सवालों से उलझने लगा हूँ।
करके बातें खुद से मिचलने लगा हूँ।
जाने सुबह वो,हसरतों की कौन लाये,
मौन,अत:करण में चिल्लाने लगा हूँ।
बेब़स-मायुश टकराती-लौटती लहरें,
ख़्यालों में लो,अदालतें लगाने लगा हूँ।
शायद तुमने दूसरे मतलब़ से देखा है,
ऐ आईने मैं तो,युँ ही मुस्कुराने लगा हूँ।
और फिसलकर दोबारा आगें बढूंगा,
ठहराकर, थोड़ा हौसला बढ़ाने लगा हूँ।
हाँ, चोट पर मुस्कुराने लगा हूँ।
हाँ, चोट पर मुस्कुराने लगा हूँ।
पुखराज "प्राज"