Tuesday, December 31, 2019

गुम हूँ कहीं.....

लबों में कहीं गुम अल्फ़ाजों में,दम तोड़ती।
अरमान हालातों से बेबस हो मुह मोड़ती।

किसे पता तेरा ठिकाना आशमां के परिंदे,
लहरें उठे कदमों के कहां निशां छोड़ती।

और बव़ा की ख़बरे पा कर गिद्धों में उत्सव है।
ये दुनिया है जब तक जान न लेले,नहीं छोड़ती।

तालियों के गड़गड़ाहट ने बताया कितना दर्द है।
हुनर युहीं नहीं महफिल में सुर्खियां बटोरती।

लेकर चिट्ठी सड़क पर दौड़ती बैरंग पतें में,
तंगहाली वो दौर है आसानी से मूह न मोड़ती।
              पुखराज "प्राज"