महासमुन्द (काव्य)।। दो पंक्तियों से शुरुआत करना चाहुंगा-
"मेरी आरजू नहीं की मैं कुछ कहलाऊं।
मैं शब्द हुँ,इतना है कि शब्द कहलाऊं।"
शब्द जिसे अंग्रेजी में वर्ड, उर्दू में अल्फ़ाज, जर्मन में डी वॉटर और ईग्बो में ओक्व कहते है। शब्द के व्यवस्थित व्याकरण के मेल से वाक्य का रूप लेता है। वाक्य किसी कथन को पूर्ण का प्राथम्य चरण है।
किसी कोरे पन्ने पर शब्दों के शिल्पों के अंकन का टंकन का कार्य कलम के द्वारा होता है। वर्तमान दौर में ये कलम उसकी स्याही और सुसज्जित लिपि हड़ताल पर आमादा है, इनकी कुछ शिकायतें है उन उँगलियों के नाम जो इनका दुरूपयोग करती हैं। इस संदेशवाहित लेख के साथ अगर उन उंगलियों तक अगर ये सांकेतिक विचारधारा पहुचे तो इस लेख को सार्थक कह सकते है।
बात पते की है साहब...! कलम की स्याही और पहले सी धार कुंद होने लगी है। भ्रष्टाचार, लालज और चाटूकारिता जैसे दीमकों ने धार कुँद करने की जैसे ज़ीद पाल रखी हो। एक वक्त वह था जब साहित्यकार, रचनाकार, पत्रकार अपनी न्यायपूर्ण लेखनी के चलते मशहूर थे। ये उनकी न्यय प्रिय रचनाधर्मिता ही थी कि वो फक्र से कहते थे- "सिर कटा सकते है लेकिन सिर झुका सकते नहीं"। समय का पहिया साहित्य के इतिहास का ऐसे घुमा की तीनों काल पूर्ण रूप से सफल निकले और लगा की वर्तमान और भी गौरवशाली होगा। सूचनाओं के दौर में साहित्य लेखन सशक्त और कटु न्यायधर्मी होगा। एक साहित्यकार अपनी साहित्य शैली का प्रसार और भी पैने-पन से कर पायेगा। लेकिन हम साहित्य के अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे।
आज एक पत्रकार,साहित्यकार, लेखक वर्ग को जैसे दो कौड़ियों के मोल पर खरिदी-बिक्री की सामग्री के तूल्य हो चले हैं। कलम हर बार सवाल पूछती है- जब कोई गरीब भूखा सोता है। जब किसी अबला नारी की सरेआम अस्मत उतारी जाती है । जब भ्रष्टचार के फ़न पसर जाते है। जब समाज के चंद ठेकेदारों की गुंड़ाई चलती है। जब योजनाओं के रोड़ मैप कागज़ पर उभारे जाते हैं और कागज़ पर लपेट कर पैसे खिसों में भरे जाते है। तो कमल पूछती है क्या मुझे चलाने वाला इसे यथार्थ लिख पाता है या फिर स्वान सा बन, फेके कुछ नोटो की हड्डियाँ चबलाने लग जाता है??? अगर लिखने वाला झूठा है तो ये सवाल हर उस व्यक्ति के मूह पर सीधा तमाचा है जो अपने आप को सच्चा साहित्यकार कहकर, शेर की खाल पहने जंगली स्वानों की सूर में गाता है। वास्तविक ख़बर के बदल जब कोई रचनाकार मिथ्या रूपी धूल समाज के आँख में झौंक जाता है।
तक रोती-बिलखती कलम फिर से उन्ही उँगलियों की ओर उँगली उठाती है और पूछती है क्या इसलिए तुम साहित्यकार हो??
लेखनी तब ऐसे काठ के उल्लू और चमचेगीरी में पीएचडी धारियों से हाथ में फस दम तोड़ जाती है। और पीछे सिर्फ सवाल एक छोड़ जाती है--
क्या तुम सच्चे साहित्यकार हो?? रचनाकार हो?? पत्रकार हो??? लेखक हो???