पड़ोसियों के संबंध में बहुत सारे तर्क-कुतर्क,मैत्री-कटुता,हास-परिहास के विषय में दंत-कथाओं से लेकर वाट्सएप के फारवर्डेड मैंसेज तक, टीवी के टीआरपी से पूराने जमाने के चुटकुले तक बहुत कुछ लिखा गया है। कभी पड़ोसियों को हमदर्द तो कभी पड़ोसियों के दर्द की वज़ह भी कहा गया है। जैसे हाल-फिल-हाल में टेलीविजन जगत् में भाभी जी घर पर हैं से जीजा जी छत पर तक बेहद अनुठे ढ़ंग से लेखकों द्वारा पड़ोसियों पर आधारित नवीन कल्प की मजबूत कल्पना की जा रही है। वास्तव में अच्छा पड़ोसी होना और मिलना दोनो शाम के खाने में बने पकवानों बराबर मात्रा में मसालों के उपयोग के समान है। खैर मेरा विषय आपके संभावनाओं से थोड़ा उलट है। विषयभूमि में थोड़ी आधारशिला के फिराक में कुछ वर्तमान के नव कीर्तिमानो को जरा सा टच करते हुए। अपने विषय की ओर आगे बढ़ता हूं।
पड़ोसियों से कम्पेरिजन का मामला मेरे ख़्याल से अंग्रेजों के जमाने से पहले से भारतवर्ष में रहा है। शायद एक-दूसरे से बेहतर और सबसे बेहतर करने की होड़ में हम न जाने किन-किन बातों को नज़र अंदाज कर बैठते है। खासकर तब पड़ोसियिज्म का मामला तब मौका-ए-वारदात पर पायी जाती है,जब अपने घर का बच्चा, पड़ोसी के बच्चे से स्कुल के रिपोर्ट कार्ड पर स्कोरिंग के शतक में हाफ सेंचूरी से भी ज्यादा अंक बटोरते हुए ८०प्रतिशत से कम लाता है। फिर तो समझो जैसे पिता हाकी के टीम कोच के समान और पूत्र नौसिखिया प्लेयर के भांति नज़र आता है। जिसने गोल करने में भारी चुक कर दी हो। शाम को सूताई और सुबह को ताने के साथ दैनिक दिनचर्या के ताने-बाने बूने जाते है। उस समय पुत्र पर पिता के द्वारा पड़ोसी बच्चे से एक मार्क ज्यादा नहीं लाने के पर्याय में विभिन्न संदर्भ-प्रसंग और आख्या-व्याख्या के साथ शब्दों की बमबारी लगातार होते रहती है। मानों बच्चे ने मार्क नहीं लाईफ सपोर्ट सिस्टम् में लगे मॉनिटर बोर्ड को विडियोंगेम समझकर खेल दिया हो उस भांति स्थिति निर्मित हो जाती है। बहरहाल उस दौरान सबसे फेमश डायलॉग के लिस्ट में एक डायलॉग मुझे हल्का सा याद आ रहा है जो कभी किसी के मुह से सूने थे- "क्या कमी कर दी हमने, जो मांगते हो वो देते है। पर फिर भी सामने वाले फलां जी के बच्चे के बराबर भी तुम्हारे माक्स नहीं आए। गज़ब करते हो भाई..! तुम्हारे लिए ही तो दिन-रात मेहनत करते है, नम्बर नहीं लाओगें तो क्या बुढ़ापे में हम से अंगुठे ही दिखाओगे कमाई के नाम पर....बोलो...!!"
पिता/पालकों का चिंतन पुत्र या पाल्य के भावी भविष्य के लिए सहीं भी है, मगर भावी भविष्य में उभरने वाले गौरवशाली कैरियर के कल्प का नींव कम्पेरिजन पर ठोके गए पिल्हर से शायद भवन भर्भरा कर गिर भी सकता है। बौधिक क्षमताएं भिन्न-भिन्न व्यक्तियों की भिन्न-भिन्न होती है। तनिक सोचिए सभी लोगों में एक समान समानताएं रहेंगी तो क्या सभी डाक्टर,इंजिनियर,वैज्ञानिक नहीं बन जायेंगे। उदाहरण के अनुसार मानकर चलें की एक गांव में १०० छात्र है सभी की बुद्धि लब्धता समान है। सभी ने एक समान अंक अर्जित करे। सभी ने एक ही प्रोफेशन में जॉब किया तो फिर उस गांव में लोगों के मध्य आपसी सह-संबंधता कहां बन पायेगी। हमसे बड़ा वैज्ञानिक यह प्रकृति है। जो अपनी कृति के सभी निकायों को मेनटेंड रखती है। वहां पर सभी की आवश्यकता रहती है सभी समान है। जैसे सिर्फ एक ही प्रकार के पुष्प के संगठन से गुलदस्ता शोभित नहीं होता, वैसे ही समाज भी है। जहां भांति-भांति के बुद्धि लब्धिता लोगों का होना अनिवार्य है। कम्पेरिजन या तुलना केवल आपके अशांत मन की उपज है। जो पल भर के असंतोष का विपोलन करने हेतू प्रगट हुए क्रोध की लावाग्नि है। जो कुछ समय पश्चात् शून्य हो जायेगी। लेकिन जिस बालक पर दो शब्द आप ने कहे है वह उसे मनोमष्तिष्क में गहरा ठेस पहुचाता है, जो शनैः ही उसके मूल क्षमताओं के लिए प्रतिकुल स्थिति पैदा करता है या मूल क्षमताओं का ह्रास का कारक बनता है। और समाज में एक नव प्रतिभा के उद्दीपन का लोप हो जाता है। बेहद आपाधापी का दौर है, समय मिलोगा तो मेरे इश्व में सोचिएगा जरूर......
आपका
पुखराज यादव "प्राज"
महासमुन्द