Monday, November 4, 2019

ज़ीरो बटे सन्नाटा किलोमीटर नैतिक मूल्य- लेखक पुखराज यादव "प्राज"

बात गज़ब की है जो कहने को मन आमादा है,मगर शुरुआत कहां से करें यहीं तो बाजी फसी हुई है। शुरू से शुरू करते है। जब हम गीले मिट्टी के बर्तन टाईप थे और कुम्हार की तरह हमें ठोक-पीट कर मास्टर जी नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ा रहे थे।उस समय तो पल्ले अपने कुछ पड़ी नहीं शायद उस एज़ के क्रेज को नादानी कहते है। अंग्रेजी में चाईडहुड और हिन्दी में बचपना जो हमने लगभग जवानी के दहलिज से दो कदम पहले तक काटी। कुछ तो स्कुल में नैतिकता के चढ़ावदार भाषणों के बीच कुछ तो नैतिकता, नैतिक मुल्य और नैतिक कर्तव्यों की पाठशाला का मनोमष्तिष्क में शुभारंभ हुआ। किशोर और जवान फिर 18+ की सीढ़ी पार करते हुए जैसे-तैसे कॉलेज के साल बीतें,इस बीच जवानी के जोश, थोड़े से परिवक्वता की छौंक के छींटे दिमाग पर अमिट अंकन कर रहे थे। शायद वह वक्त के डिमांड पर मन में भरा नैतिक मुल्यों के टंकन का प्रदर्शन बखुबी होने लगा था। हम अपने आप को थोड़े सभ्य समझने लगे, या समझने की भूल भी कह सकते हैं। थोड़े हुल्लड़ मिजाजी भी थे मगर प्राध्यापकों के पन्हीं में पैर समतल हो लिए थे कि हम भी आदर्शवादी बनने के मार्ग पर चल निकले। धीरे-धीरे सरकती धूप सी जिन्दगी में एडल्टरी एज के पदार्पण के साथ कैरियर के दर्पण में हल्की-हल्की झलक हमें दिखाई देने लगी। नियति और मन के रूझान का उछाल सेन्सेक्स से भी तेज निकला की कैरियर की दोपहिए वाली गाड़ी पर सवार हो निकले। अब तो दफ्तर, दफ्तर से घर और कभी- कभी यार-व्यार कें संग दो पल की ठीठोली में, तो कभी बॉस की कानाफुशी में,तो कभी ख्वाहिशों के ट्रेफिक तले मसलुफ होने लगे। फिर सोशलिया मायावी यंत्रों जैसे वाट्सएप,ट्वीटर,एफबी, मेल-फीमेल लिंकिन-डिंकन करते करते लाईफ को निचोड़ कर मधुरस का स्वाद, सुकुनी चखने के साथ लेने लगे।
          संडे को कभी छूट्टी की दस्तक हुई तो टाकिज में ढाई घंटे एक टक हो, नायक-नायिका के अभिनय में अपने आप को खोजने लगते। फिल्मी माया भी तो ठाँय से लगती है...! भाई...!!! फिल्म दो घंटे की हो मगर दो सैकेंडों के मसाला-लबरेज डायलोग... जिभ में चाशनी सी चिपक जाती है। और कभी-कभी स्टाईल से अपने प्रिय जनों के बीच गदर मचा के सुनाई जाती रही।
      बहरहाल.....! मेरा विषय नैतिक मूल्यों पर है चलिए उसी पर थोड़े डाईवर्ट हो लेते है। नैतिक मूल्यों के वर्धन या विलोपन की बात तब आती है जब कोई असहाय भूखा मर जाता है। जब ट्रेफीक सिग्नल पर चिथड़े उड़े कपड़ों के साथ कोई बच्ची एक पैसे की मांग करती है। हम तो नाक सिकोड़ते गाड़ी के सीसे बंद कर देते हैं। और बस कहते है सरकार गरीबी हटाओ कहती है पर काम में तो जीरो बटे सन्नाटा है...! भाई । शायद इतना कहकर हम अपने आप को संतुष्ट कर लेते है। कभी कोई असहाय लड़की मद्द को गुहार लगाती रोड़ पर लड़खड़ाती कदमों के साथ दौड़ती दिखती है। तब हम हाथ छूड़ा कर भाग खड़े होते है। जब कोई बुजुर्ग बेहाल होता है,तब उसे वृद्धाआश्रम में छोड़ कर कहते है। अपने बैच को लोगों के साथ रहेंगे तो मन हल्का रहेगा। वाह भई वाह....!!! जो नैतिक शिक्षा और संस्कारों का पाठ हम पढ़ते शायद वह पाठशाला के दहलिज पार करते ही बस्तों में रखी किताबों में वापस जमा हो  जाती है। और प्रोफेशनलिज्म के छाप तले नैतिक कर्तव्यों की होली कर बैठते है। शायद यही परिवर्तन है या विवर्तन आप जरूर सोचिएगा।

           ___पुखराज यादव "प्राज"