हुड़दंग तरंग संग लिए घनन-घनन यह,
मन मगन-मगन मृदंगतान पर थिरके रे।
मति-गति,यति-हारे सब रहे मन रति रे,
ज्यों भोर बढ़कर दोपहरी तक सरके रे।
कौ जाने हरि ते हरि मिले हरि या खरी,
जूरै ज्यों जड़-जड़ तभी फल फ़िरके रे।
कौन कहे कठिन कथा खड़ी भावी को,
ना समझे वहां बयार किशोर झिड़के रे।
चल-चल रे फकीरा चल प्राज प्रख़र तू,
यहां जन-ज्ञान पर कम,बेताल थिरके रे।
_पुखराज यादव "प्राज"