ज़िन्दान में कब्र बनाने की तैयारी कैसा।
सिद्दत नहीं तुम में, तो होशियारी कैसा ।
फिर बात वहीं फसी है,दौर-ए-तोहमत,
यार फिर तेरे-मेरे दरमियाँ में यारी कैसा।
तग़ाफुल कर बैठे अपनों को रफ़्ता-२,
फिर से राब्ता की तेरी दावेदारी कैसा।
यों सोचकर चले थे सोहबत में तुम्हारे,
कुछ कर गुजरेंगे,पलटे यों..वारी कैसा।
माना तवज्जों के भाव थोड़े महंगे ठहरे
न तवक़्क़ा तुमसे,तो तुम्हारी बारी कैसा।
रिवायतों पर भरोषा भर्रभराकर गिरेगा,
तब जान पाओगे फर्क अँधियारी कैसा।
*✍पुखराज प्राज*