किसी ने छंदों के बहाने पूछा?
क्या कविताएं मै भी गढ़ सकता हूँ।
क्या ओज,राग,श्रृंगार और करूणा,
इनमें से कोई कविता पढ़ सकता हूँ।
महफिल चलती रहे और बेबाकि से,
तान सीना मैं मंच पर चढ़ सकता हूँ।
बतलाईये ना, बतलाईये ना मामा श्री,
क्या मै मंचों की ओर बढ़ सकता हूँ?
जिज्ञासा,जज्बा और जोरदार असर,
देख मैं भी मूक्त छंद में बोल....उठा।
हे सुबह तुम शन्नै: ही दोपहर बनोगे,
फिर तेज,ओज सारे रंग दिखलाओगे।
भांजे श्री कवित्त के हर पंक्ति पर,सुनो..
आगे चल तुम अनुभव छौंक लगाओगे।
अग्रसर रहो मगर मंचों की होड़ ना करना,
तब जा..कर तुम भी कवि कहलाओगे।
और दो टूक कह दिये देता हूँ, सून लो,
कभी भी शब्दों की सीमा ना लाँघना।
कभी मंच पर जमने के चक्कर में कोई,
अश्लिलता लिप्त भूमिका ना बाँधना।
भांजे श्री सूनो कवित्त है धर्म कवि का,
और इसमें तेज ओज दोगुना रवि का।
तुम्हे हर पीर पहाड़ पर तेज चलना है।
मरिचिका-मिथक से तुम्हे संभलना है।
हाँ... कोई भी लिख सकता है कविता,
मगर बिन नींव को कहां घर समभलना है।
अनुसंधान है,प्रमाण है, रहस्य है,ज्ञान है,
तुम्हें इसकी आभा और प्रखर करना है।
_✍पुखराज यादव