हाय ! किसने तुम्हारे मन को इतना मंदन किया।
किसने .. तुम्हारे विचारों को इतना क्षरण किया।
क्यों तोडी़ लोक लाज की सीमाएं री फगुनियाँ,
क्यों बन बैठी री .......ऐ! लता,तू......पतुरिया।
ईह कथा देख तुम्हारी व्यथा से भर जाता हूँ।
अति आँश्रु भरा हृदय में शोकजलधि पाता हूँ।
किसने... क्षरण किया मन की कोमलता को,
किसने... तर्पण किया मन की निर्मलता को।
क्या.. नैतिकता के पतन का कोई कारण था।
क्या सामाजिकता किया पतन को धारण था।
शिष्ट कहने वाले इन मानवों में से कौन पापी?
जिसने किया तुम्हारा मानसिक.. शोषण था।
क्या क्या रही होगी कथन कारण और क्षण,
क्यो बन गई जो, ऐ ! लता........तू पतुरिया।
कितनी रातें रोज-रोज....जला चुकि होगी तू।
कितना खूद में खूद...को मिटा चुकि होगी तू।
सोचता मन की क्या रही होंगी परिस्थितियाँ,
जो मोल मे क्रय-विक्रय की बनी स्थितियाँ युँ।
क्या समाज के ठेकेदारों सुध ना आया होगा?
जाने क्यों हुई युँ लता,यह प्रश्न न छाया होगा?
कुछ तो लोभ में,कुछ अपहरण से, डर....से,
कुछ बहला फुसलाकर,देह-व्यापार में आती।
क्या प्रहरियों के बीना मिलीभगत सब होगा?
क्या अपराध -संरक्षण भी पाप समान होगा?
कौन ये सब सोचे?? किसके पास है पहरियाँ।
क्यों बन बैठी री, ऐ ...! लता तू ......पतुरिया।
*©पुखराज यादव "पुक्कू"*
महासमुन्द