मन है न तन मे है।
ना,गर्भ में है ना गगन में है।
कौन बांचे पीर पराई?
अंदर ही ..जैसे संघन में है।
और शहर का कब्जा,
गांव तक हो चला है।
नागरिकी भी तो सखी,
बड़ी गज़ब बला है।
यहां परोस परदेश कहां कम,
यहां नहीं होते नदियों में संगम।
रेत भी प्यासी बरसो से बैठी,
अपनत्व की बारिश होता कम।
बड़ा बनने या यार तना है,
लगता है मानो गुरूर घणा है।
शिष्टाचार विलुप्त होने को है,
फर्क पड़ा किसे, न लक्षणा है।
शोर बड़ा है मेरे आशिकी,
ना तू सुनता, ना मै सुनता...
मिलता ना कोई भला हल है।
महंगी शहरी माया और,और,
खाली यहां कोलाहल है...
सिर्फ यहां कोलाहल है......।
*✍🏻पुक्कू यादव*
Justonmood